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प्र०५, सू०१०२-११८, टि०७,८
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उत्तरवर्ती है -जिनसेन का शक सम्वत् ७५९, वीरसेन का शक सम्वत् ७३८ । नंदी और धवला, जयधवला के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि दोनों के परम्परा स्रोत भिन्न हैं। इसका दूसरा अनुमान यह भी हो सकता है कि देवधिगणी ने सूत्रों के नामों का उल्लेख किया है । धवला और जयधवलाकार ने सूत्रों के अर्थाधिकार का प्रतिपादन किया है ।
सूत्र १०४-११८ ८. (सूत्र १०४-११८) पूर्वगत
पूर्व शब्द के अनेक तात्पर्यार्थ बतलाए गए हैं-१. तीर्थङ्कर तीर्थ प्रवर्तन के काल में सर्वप्रथम पूर्वगत के अर्थ का निरूपण करते हैं । उस अर्थ के आधार पर निर्मित ग्रन्थ पूर्व कहलाते हैं। गणधर सूत्ररचना करते समय सर्वप्रथम आचाराङ्ग की रचना करते हैं फिर क्रमशः सूत्रकृतांग आदि की रचना करते हैं। और उसी क्रम से उनकी स्थापना करते हैं।'
कुछ आचार्यों का मत इससे भिन्न है—गणधर सर्वप्रथम पूर्वो की रचना करते हैं उसके पश्चात् आचाराङ्ग आदि अङ्गों की रचना करते हैं।
____ आचाराङ्ग नियुक्ति में बताया गया है कि सब अङ्गों में प्रथम आचाराङ्ग है फिर पूर्व की रचना सबसे पहले हुई यह कैसे माना जा सकता है । चूर्णिकार ने इसका समाधान किया है-आचाराङ्ग नियुक्ति का कथन स्थापना की दृष्टि से है, रचना की दृष्टि से नहीं।' तुलना के लिए द्रष्टव्य-१. आचारांग भाष्य भूमिका, पृ. १३,१४
२. समवाओ, पृ. ३९० ३. श्री भिक्षु आगम विषय कोश, पृ. ४२३ से ४२९
चौदह पूर्वो के पदों का प्रमाण क्रम
श्वेताम्बर १. उत्पाद पूर्व
१०००००००
१००००००० २. अग्रयणीय पूर्व
९६०००००
९६००००० ३. वीर्य पूर्व
७०००००० ४. अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व
६०००००० ५. ज्ञानप्रवाद पूर्व
९९९९९९९
९९९९९९९ ६. सत्यप्रवाद पूर्व
१००००००६ ७. आत्मप्रवाद पूर्व
२६००००००० ८. कर्मप्रवाद पूर्व
१८००००००
८०००० ९. प्रत्याख्यान पूर्व
८४०००००
८४००००० १०. विद्यानुप्रवाद पूर्व
११००००००
११०००००० ११. अवंध्य पूर्व
२६०००००००
२६००००००० १२. प्राणायु पूर्व
१३०००००००
१५६००००० १३. क्रियाविशाल पूर्व
९००००००० १४. लोकबिन्दुसार पूर्व
१२५००००००
१२५००००००
दिगम्बर
०
०००
० ०
७२०००००
६००
०
९५५०००००५ १. नन्दी चूणि, पृ. ७५ : जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराण सव्वसुताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगतसुतत्थं भासति तम्हा पुन्व त्ति भणिता, गणधरा पुण सुत्तरयणं करेन्ता
आयाराइकमेण रयंति टुर्वेति य । २. वही, पृ. ७५ : अण्णायरियमतेणं पुण पुव्वगतसुत्तत्थो पुन्वं
अरहता भासितो, गणहरेहि वि पुग्वगतसुतं चेव पुन्वं रइतं पच्छा आयाराइ।
८३२८८०००५ ३. वही, पृ. ७५ : गणु पुवावरविरुद्धं, कम्हा? जम्हा
आयारनिज्जुत्तीए भणितं- "सवेसि आयारो'। आचार्याऽऽह-सत्यमुक्तम्, किंतु सा ठवणा, इमं पुण अक्खररयणं
पडुच्च भणितं, पुव्वं पुव्वा कता इत्यर्थः । ४. षट् खण्डागम, पुस्तक १, पृ. ११६-१२२ ५. नन्दी चणि, पृ. ७५,७६
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