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________________ १५४ नंदी आणाए आराहिता चाउरंतं आज्ञया आराध्य चातुरन्तं संसारसंसारकतारं वीईवयंति। कान्तारं व्यतिव्रजन्ति । इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं इत्येतद् दादशाङ्गं गणिपिटकम् अणागए काले अणंता जीवा अनागते काले अनन्ताः जीवाः आणाए आराहित्ता चाउरतं आज्ञया आराध्य चातुरन्तं संसारसंसारकतारं वीईवइस्संति ॥ कान्तारं व्यतिव्रजिष्यन्ति । चार गतिवाले संसारकांतार का व्यतिक्रमण करते हैं। भविष्यकाल में अनन्त जीव इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा की आराधना करके चार गति वाले संसारकांतार का व्यतिक्रमण करेंगे। १२६. इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं इत्येतद् द्वादशाङ्ग गणिपिटकं न १२६. यह द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं था, न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, कदाचिद् नासीत्, न कदाचिद् न कभी नहीं है या कभी नहीं होगा-ऐसा न कयाइ न भविस्सइ। भवि च, भवति, न कदाचिद् न भविष्यति । नहीं हो सकता। था, है और रहेगा। यह भवइ य, भविस्सइ य । धुवे नियए अभूत् च, भवति च, भविष्यति च । ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए ध्रुवं नियतं शाश्वतम् अक्षयम् अव्ययम् अवस्थित और नित्य है। निच्चे। अवस्थितं नित्यम् । से जहानामए पंचत्थिकाए न तद् यथानाम पञ्चास्तिकायः न जैसे-पंचास्तिकाय कभी नहीं था, कभी कयाइ नासी, न कयाइ नस्थि, कदाचिद् नासीत् न कदाचिद् नास्ति नहीं है या कभी नहीं होगा-ऐसा नहीं हो न कयाइ न भविस्सइ। भुवि च, न कदाचिद् न भविष्यति । अभूत् च, सकता । था, है और रहेगा। यह ध्रुव, भवइय, भविस्सइ य ।धवे नियए भवति च भविष्यति च। ध्रुवः नियतः नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित सासए अक्खए अव्वए अवठ्ठिए शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अवस्थितः और नित्य है। वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक निच्चे । एवामेव दुवालसंगे गणि- नित्यः । एवमेव द्वादशाङ्ग गणिपिटकं कभी नहीं था, कभी नहीं है कभी नहीं रहेगापिडगे न कयाइ नासी, न कयाइ न कदाचिद नासीत् न कदाचिद् ऐसा नहीं हो सकता। था, है और रहेगानत्थि, न कयाइ न भविस्सइ। नास्ति न कदाचित् न भविष्यति । यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, भुवि च, भवइ य, भविस्सइय। अभूत् च भवति च भविष्यति अवस्थित और नित्य है।" धुवे नियए सासए अक्खए अव्वए च। ध्रुवं नियतं शाश्वतम् अक्षयम् अवट्टिए निच्चे ॥ अव्ययम् अवस्थितं नित्यम् । १२७. से समासओ चउन्विहे पण्णते, तत् समासतश्चतुविधं प्रज्ञप्तं, १२७. वह श्रुतज्ञान संक्षेपत: चार प्रकार का तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, कालओ, भावओ। तत्थ दव्वओ भावतः । तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी उप- भावतः । णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं युक्तः सर्वद्रव्याणि जानाति पश्यति । द्रव्य की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त जाणइ पास। अवस्था में (ज्ञेय के प्रति दत्तचित्त होने पर) सब द्रव्यों को जानता, देखता है। खेत्तओ णं सुयनाणी उवउत्ते क्षेत्रत: श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्व क्षेत्र की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ। क्षेत्रं जानाति पश्यति । अवस्था में सब क्षेत्रों को जानता, देखता है। कालओ णं सुयनाणी उवउत्ते कालतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्व काल की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त सव्वं कालं जाण पासइ। कालं जानाति पश्यति । अवस्था में सर्वकाल को जानता देखता है । भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते भावतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वान् भाव की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त सब्वे भावे जाणइ पासइ । भावान् जानाति पश्यति। अवस्था में सब भावों को जानता, देखता है।" संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा संग्रहणी-गाथा अक्खर सण्णी सम्म, अक्षर संजि सम्यक, १. अक्षरश्रुत, संज्ञीश्रुत, सम्यक्श्रुत, साइयं खलु सपज्जवसियं च । सादिकं खलु सपर्यवसितञ्च । सादिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत, गमिकश्रुत, गमियं अंगपविठं, गमिकमङ्गप्रविष्टं, अंगप्रविष्टश्रुत ये सात हैं। इनके प्रतिपक्षी भी सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥१॥ सप्तापि एते सप्रतिपक्षाः॥ सात हैं । कुल मिलाकर चौदह हैं ।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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