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________________ पांचवां प्रकरण : द्वादशांग विवरण : सूत्र ८३,८४ १३६ अग्रभाग, कुंड, गुफा, आकर, द्रह और नदियों का आख्यान किया गया है। स्थान में एक से लेकर एक-एक की वृद्धि करते हुए दस स्थान तक विवधित भावों की प्ररूपणा की गई हैं। ___ स्थान में परिमित वाचनाएं, संख्येय अनुयोगद्वार, संख्येय वेढा (छंद-विशेष), संख्येय श्लोक, संख्येय नियुक्तियां, संख्येय संग्रहणियां और संख्येय प्रतिपत्तियां हैं । गुहाओ, आगरा, दहा, नईओ गुहाः, आकराः, द्रहाः, नद्यः आघविज्जति। आख्यायन्ते। ठाणे णं एगाइयाए एगुत्तरियाए स्थाने एकादिकया एकोत्तरिकया वुडढीए दसटठाणग-विवढियाणं वृद्धया दशस्थानक-विद्धितानां भावानां भावाणं परूवणा आघविज्जइ। प्ररूपणा आख्यायते। ठाणे णं परित्ता वायणा, स्थाने परीताः वाचनाः, संख्येसंखेज्जा अणओगदारा, संखेज्जा यानि अनुयोगद्वाराणि, संख्येयाः वेढा, संखेज्जा सिलोगा, वेष्टाः, संख्येयाः श्लोकाः, संख्येयाः संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, निर्युक्तयः, संख्येयाः संग्रहण्यः, संख्येयाः संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ प्रतिपत्तीयः । पडिवत्तीओ। __ से णं अंगठ्याए तइए अंगे, तद् अंगार्थतया तृतीयम् अंगम्, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, एकः श्रुतस्कन्धः, दश अध्ययनानि, एगवीसं उद्देसणकाला, एगवीसं एकविंशतिः उद्देशनकालाः, एकविंशतिः समुद्देसणकाला, बावरि पयस- समुद्देशनकालाः, द्वासप्ततिः पदसहहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, स्राणि पदानेण, संख्येयानि अक्षराणि, अणंता गमा, अर्णता पज्जवा, अनन्ताः गमाः, अनन्ताः पर्यवाः, परित्ता तसा, अणंता थावरा, परीताः प्रसाः, अनन्ताः स्थावराः, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचिताः जिनजिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति प्रज्ञप्ताः भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते, पण्णविज्जंति परूविज्जंति प्ररूप्यन्ते, दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते दंसिज्जति निवंसिज्जति उवदंसिज्जंति। से एवं आया, एवं नाया, एवं स एवमात्मा, एवं ज्ञाता, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण-परू- विज्ञाता, एवं चरण-करण-प्ररूपणा वणा आघविज्जइ । सेत्तं ठाणे॥ आख्यायते । तदेतत् स्थानम् । यह अंगों में तीसरा अंग है । उसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशनकाल, इक्कीस समुद्देशन-काल, पद परिमाण की दृष्टि से बहत्तर हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। उसमें परिमित त्रस, अनन्त स्थावर, शाश्वत-कृतनिबद्ध-निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। इस प्रकार स्थान का अध्येता आत्मास्थान में परिणत हो जाता है । वह इस प्रकार ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार स्थान में चरण-करण की प्ररूपणा का आख्यान किया गया है। वह स्थान है। ८४. से कि तं समवाए ? समवाए अथ कः स समवायः? समवाये ८४. वह समवाय क्या है? णं जीवा समासिज्जंति, अजीवा जीवाः समाश्रीयन्ते, अजीवाः समा- समवाय में जीवों का समाश्रयण, अजीवों समासिज्जंति, जीवाजीवा समा- श्रीयन्ते, जीवाजीवाः समाश्रीयन्ते । का समाश्रयण तथा जीव-अजीव-दोनों का सिज्जति । ससमए समासिज्जइ, स्वसमयः समाश्रीयते, परसमयः । समाश्रयण किया गया है । स्वसमय का परसमए समासिज्जइ ससमय- समाश्रीयते, स्वसमय-परसमयः समा- समाश्रयण, परसमय का समाश्रयण तथा परसमए समासिज्जइ। लोए श्रीयते । लोकः समाधीयते, अलोकः स्वसमय-परसमय-दोनों का समाश्रयण समासिज्जइ, अलोए समासिज्जइ, समाश्रीयते, लोकालोकः समाधीयते । किया गया है। लोक का समाश्रयण, अलोक लोयालोए समासिज्जइ। का समाश्रयण तथा लोक-अलोक-दोनों का समाश्रयण किया गया है। समवाए णं एगाइयाणं एगुत्त- समवाये एकादिकानाम् एकोत्त- समवाय में एक से लेकर एक-एक की रियाणं ठाणसय-विवढियाणं रिकानां स्थानशत-विद्धिताना भावानां वृद्धि करते हुए सो स्थान तक विवधित भावों भावाणं परूवणा आघविज्जइ । प्ररूपणा आख्यायते । द्वादशविधस्य की प्ररूपणा की गई है । इसमें द्वादशांग दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स च गणिपिटकस्य पल्लवानः समा- गणिपिटक के पल्लव परिमाण (पर्यवपल्लवग्गे समासिज्जइ। श्रीयते। परिमाण) का समाश्रयण किया गया है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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