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प्र४, सू० ७३, टि० १०
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मिलता है।
जिनभद्रगणि ने अङ्गप्रविष्ट और अङ्गवाह्य के भेदकारक हेतु बतलाए हैं'
अङ्गप्रविष्ट
अङ्गबाह्य १. अङ्गप्रविष्ट आगम गणधर के द्वारा रचित है ।
१. अङ्गबाह्य आगम स्थविर के द्वारा रचित हैं। २. गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित | २. प्रश्न पूछे बिना तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित होता है। होता है।
३. चल होता है-तात्कालिक या सामयिक होता है । ३. शाश्वत सत्यों से संबंधित होता है और सुदीर्घकालीन होता
चूर्णिकार ने एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य भी यही है'
गणहरकतमंगगतं जं कत थेरेहिं बाहिरं तं च ।
णियतं बंग पविट्ठ अणियतसुत बाहिरं भणितं ।। उमास्वाति ने अङ्गबाह्य के कर्ता और उद्देश्य दोनों का निरूपण किया है। उनके अनुसार अङ्गबाह्य के रचनाकार आचार्य गणधर की परम्परा में होते हैं उनका आगम ज्ञान अत्यन्त विशुद्ध होता है । वे परम प्रकृष्ट वाक्, मति, बुद्धि और शक्ति से अन्वित होते हैं । वे काल, संहनन, आयु की दृष्टि से अल्पशक्ति वाले शिष्यों पर अनुग्रह कर जो रचना करते हैं वह अङ्गबाह्य है।'
आगम रचना के विषय में पूज्यपाद, अकलंक, वीरसेन और जिनसेन का अभिमत भी ज्ञातव्य है । पूज्यपाद के अनुसार आगम के वक्ता तीन होते हैं
१. सर्वज्ञ-तीर्थ दूर अथवा अन्यकेवली २. श्रुतकेवली ३. आरातीय (उत्तरवर्ती) आचार्य ।
सर्व तीर्थङ्कर ने अर्थागम का प्रतिपादन किया । आरातीय आचार्यों ने कालदोष से प्रभावित आयु, मति, बल को ध्यान में रखकर अङ्गबाह्य आगमों की रचना की।'
अङ्गबाह्य आगम की रचना के विषय में अकलंक का अभिमत पूज्यपाद जैसा ही है। वीरसेन ने अङ्गबाह्य के रचनाकार के रूप में इन्द्रभूति गौतम का उल्लेख किया है। जिनसेन के अनुसार अङ्गप्रविष्ट और अङ्गवाह्य का अर्थ महावीर ने बतलाया और उन दोनों की रचना गौतम गणधर ने की।
अङ्गबाह्य आगम की रचना के विषय में प्रमुख मत तीन हैं१. भगवान महावीर के द्वारा अर्थ रूप में प्रतिपादन और गणधरों द्वारा उनकी रचना । २. इन्द्रभूति गौतम द्वारा अङ्गबाह्य की रचना। ३. आरातीय आचार्यों द्वारा अङ्गबाह्य की रचना ।
दशकालिक आदि अङ्गबाह्य आगम के रचनाकार श्रुतकेवली हैं, गणधर नहीं हैं । प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार आदि अङ्गबाह्य आगम रचना की भी यही स्थिति है। इसलिए जिनभद्रगणि, पूज्यपाद और अकलंक का अभिमत अधिक प्रासंगिक है। क्वचितक्वचित् अङ्गबाह्य आगम की रचना के साथ तीर्थंकर और गणधर का उल्लेख भी मिलता है। १. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५५० ।
युमंतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवकालिकाद्युपनिबद्धम् । गणहरथेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा ।
तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगहीतमिव । धुव-चलविसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥
६. तत्त्वार्थवातिक, भाग १, १२०, पृ. ७८ २. नन्दी चूणि, पृ. ५७
७. षट्खण्डागम, पुस्तक ९, पृ. १५९ : गोदमगोत्तेण ब्रह्मणेण ३. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्, ११२० का भाष्य : गणधरानन्तर्यादि
इंद्रभूदिणा आयार...... दिद्विवादाणा'..... मंगबज्झाणं भिस्त्वत्यन्तविशुद्धागमः परमप्रकृष्टवाङ्मतिबुद्धिशक्ति
च... रयणा कदा । भिराचार्यः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनु- ८. हरिवंश पुराण, सर्ग २।१०१, १११ : ग्रहाय यत् प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति ।
अंगप्रविष्टतत्त्वार्थ प्रतिपाद्य जिनेश्वरः । ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ.८७ : त्रयोवक्तारः-सर्वजस्तीर्थकर इतरो
अंगबाहामवोचत्ता प्रतिपाद्यार्थरूपतः ॥ ___ वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति ।
अथ सप्तद्धिसम्पन्नः श्रुत्वार्थ जिनभाषितम् । ५. वही, पृ. ८७ : आरातीयः पुनराचार्यः कालदोषात्संक्षिप्ता
द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धं सोपाङ्गं गौतमो व्यधात् ॥
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