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________________ १२६ नंदी प्रकृति असंख्येय है इसलिए ज्ञान के विकास का अनन्तवां भाग उससे संबद्ध नहीं है । मनः पर्यव ज्ञान का भी वह संभव नहीं हो सकता । अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान नित्य उद्घाटित नहीं रहते । इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में उनका अधिकार नहीं है । शेष दो ज्ञान रहते हैं-मति और श्रुत । श्रुतज्ञानात्मक अक्षर का अनन्तवां भाग उद्घाटित रहता है। श्रुत और मति दोनों सहचारी हैं । चूर्णिकार की व्याख्या विशेषावश्यक भाष्य पर आधारित है। उसके अनुसार केवलज्ञान को छोड़कर जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद होते हैं । केवलज्ञान सर्वथा भेद विमुक्त है। इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में अक्षर का तात्पर्यार्थ श्रुताक्षर है । विशेषावश्यक भाष्य में मतांतर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार अक्षर का संबंध श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों से यह मत षट्खण्डागम में उपलब्ध है। उसके अनुसार लब्ध्यक्षर ज्ञान अक्षरसंज्ञक केवलज्ञान का अनन्तवां भाग है ।" सापेक्ष दृष्टि से दोनों मतों का सामञ्जस्य किया जा सकता है । सामान्य ज्ञान के केवलज्ञान आदि विभाग करें तो लब्ध्यक्षर का संबंध श्रुतज्ञान और मतिज्ञान से होता है । यदि सामान्य ज्ञान को केवलज्ञान माने तो लब्ध्यक्षर को केवलज्ञान का अनन्तवां भाग मानने में कोई कठिनाई नहीं होगी । ज्ञान का अनन्तवां भाग सदा उद्घाटित रहता है। इसका तात्पर्य है कि एकेन्द्रिय जीव में सर्व जघन्य ज्ञान चैतन्य मात्र सदा अनावृत रहता है । उत्कृष्ट स्त्यानद्धि निद्रा का उदय होने पर भी उसका ज्ञान दर्शन आवृत नहीं होता । इस अनावृत अवस्था के आधार पर ही जीव का जीवत्व सुरक्षित रहता है। अनावृत रहना जीव द्रव्य का स्वभाव है इसलिए इस स्वभाव का अतिक्रमण नहीं होता । सूत्रकार ने एक दृष्टांत के द्वारा इसे स्पष्ट किया है- - आकाश सघन बादलों से आच्छादित हो गया है फिर भी चांद और सूर्य की प्रभा मेघपटल को भेदकर द्रव्यों को अवभासित करती है, दिन और रात का भेद भी बना रहता है। इसी प्रकार आत्मा का प्रत्येक प्रदेश ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के अनन्त पुद्गल स्कंधों से आवेष्टित, परिवेष्टित है । फिर भी ज्ञान का अनन्तवां भाग कर्मावरण पटल का भेदन कर अवभासित रहता है । अनावृत ज्ञान के विकास का क्रम इस प्रकार है, देखें यंत्र - सर्वजघन्य ज्ञानाक्षर पृथ्वीकाय जीव अप्काय जीव तेजस्काय जीव अनन्त भाग विशुद्धतर ज्ञानाक्षर वायुकाय जीव वनस्पतिकाय जीव डीन्द्रिय जीव त्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रियजीव १. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ४९७ : तस्स उ अनंतभागो निच्चुग्धाडो य सव्वजीवाणं । भणियो सुम्मि केवल तिथिभेोवि ॥ २. वही, गा. ४९६ : अविलेसियं पि मुझे अपखरपन्नायमाणमाद केरा एवं दोषमविरुद्धं ॥ Jain Education International 31 "1 13 31 33 "" 21 " असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव 31 33 प्रस्तुत आगम में पर्यवाग्र का वर्णन है । उसकी तुलना के लिए द्रष्टव्य षट्खण्डागम पुस्तक १३ पृ० २६२ से २६५ । आवश्यक नियुक्ति में श्रुतज्ञान की प्रकृतियों पर विचार किया गया है जितने अक्षर और जितने अक्षर संयोग होते हैं उतनी ही श्रुतज्ञान की प्रकृतियां हैं । नियुक्तिकार ने विनम्रता के साथ कहा- "श्रुतज्ञान की सब प्रकृतियों का वर्णन करना मेरी शक्ति से परे है।"" जिनभद्रगणि ने इसके रहस्य का उद्घाटन किया है। उन्होंने लिखा कि संयुक्त और असंयुक्त वर्णों के अनंत संयोग होते हैं और प्रत्येक संयोग के और परपर्याय अनंत होते हैं ।" षट्खण्डागम में श्रुतज्ञानावरण की संख्येय प्रकृतियां बतलाई गई हैं। "1 31 " ३. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २६३ : तं पुण लद्धिअक्खरं अक्खरसणिदस्त केवलणाणस्स अनंतिमभागो । ४. आवश्यकनियुक्ति, गा. १७, १८ ५. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ४४५ से ४४८ ६. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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