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________________ १०४ देखें यंत्र ज्ञेय द्रव्य क्षेत्र काल भाव सामान्य आदेश द्रव्य जाति, धर्मास्तिकाय आदि आकाश सर्व काल सर्वभावभाव -- जाति आभिनिबोधिक ज्ञानी सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को नहीं देखता है । यह प्रतिपादन सापेक्ष दृष्टि से किया गया है । चूर्णिकार के अनुसार आभिनिबोधिक ज्ञानी सब द्रव्यों को नहीं देखता । यह निषेध सामान्य आदेश के आधार पर किया गया है । विशेष आदेश के आधार पर वह देखता है जैसे चक्षु से रूप को देखता है । ८. ( गाथा २ ) 'उग्गह इक्कं समयं' इसकी व्याख्या में हरिभद्रसूरि ने नैश्चयिक और सांव्यवहारिक अवग्रह की चर्चा की है। इसका मूल स्रोत विशेषावश्यक भाष्य है । अवग्रह के बारह प्रकार बतलाए गए हैं। उनकी एक समय की अवस्थिति वाले अवग्रह के साथ संगति नहीं बैठती है । इस समस्या को ध्यान में रखकर जिनभद्रगणि ने अवग्रह के नैश्चयिक और सांव्यवहारिक ये दो भेद किए हैं। अव्यक्त सामान्य मात्र ग्रहण करने वाला अवग्रह नैश्चयिक अवग्रह है। उसका कालमान एक समय है । अपाय के पश्चात् उत्तरोत्तर पर्याय का ज्ञान करने के लिए जो अवग्रह होता है वह सांव्यवहारिक अवग्रह है ।" १. नन्दी चूर्ण, पृ. ४२, ४३ २. (क) नन्दी चूर्ण, पृ. ४२ : 'ण परसइ' ति सव्वे सामण्ण बिसेस धम्मदिए स्व-सहाइते केयि पासति त्ति वत्तत्वं । नंदी विशेष आदेश धर्मास्तिकाय का देश, प्रदेश आदि लोकाकाश, अलोकाकाश, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यलोक सूत्र ५० में ईहा, अवाय का कालमान अन्तर्मुहूर्त्त बताया गया है। प्रस्तुत गाथा में ईहा और अवाय का कालमान अर्द्धमुहूर्त बतलाया गया है। इसका हेतु परम्परा भेद है। यह गाथा षट्क आवश्यक निर्युक्ति से उद्धत है ।" निर्मुक्तिकार ने अर्द्धमुहूर्त की परम्परा का अनुसरण किया है। हरिभद्रसूरि ने नियुक्ति तथा नंदी की टीका में अर्द्धमुहूर्त और अन्तर्मुहूर्त्त की परंपरा में सामञ्जस्य स्थापित किया है। व्यवहार की अपेक्षा ईहा और अवाय का कालमान अर्द्धमुहूर्त है ।" (ख) द्रष्टव्य -- भगवई, सू. ८।१८४ का भाष्य | २. हारिद्रयावृत्ति, पृ. ५७ इहाभिहितोऽहो यो जघन्यो नैश्चयिकः स खल्वेकं समयं भवतीति सम्बन्धः । सांख्यवहारकार्यातु पृथक् पृथ महूर्त्तकालं भवत इति ज्ञातव्यौ । ४. विशेषावश्यक भाष्य, गा. २८५ से २८८ : Jain Education International समय, आवलिका आदि, उत्सर्पिणी आदि जीव भाव -ज्ञान, कषाय आदि अजीवभाववर्णपर्याय' उनके अनुसार नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और सांव्यवहारिक अर्थावग्रह का समय अन्तर्मुहूर्त है । सिद्धगण के मत से भी इस सिद्धांत की पुष्टि होती है। उनके मतानुसार बहु का अवग्रहण औपचारिक अवग्रह है । इसका कालमान एक समय का नहीं होता । " सव्वत्थे हा वायानिच्छ्रयओ मोत्तु माइसामण्णं । संयवहारस्थं पुण सय्यो । तरतमजोगाभावेऽवाउच्चिय, धारणा तदंतम्मि | सव्वत्थ वासणा पुण भणिया कालंतरस्सई य ॥ सहो त्ति व सुय भणियं विगप्पओ जइ विसेसविण्णाणं । पेज्जतं पि जुज्जइ संववहारोग्गहे सव्वं ॥ खोइयदोस जालपरिहारो जुज्जई संताणेण य सामण्ण-विसेसव्ववहारो ॥ ५. आवश्यक निर्युक्ति, गा. २-६, १२ : ६. हारिभवा वृति, पृ.५७ हाउपाय महात भवतः । तत्र मुहूर्त्तशब्देन घटिकाद्वयपरिमाणः कालोऽभिधीयते तस्यार्द्धम् 'तु शब्दः' विशेषणार्थः । कि विशिनष्टि ? व्यवहारापेक्षाह तस्त्वन्तमवयम् । तत्व ७. सत्वामाण्यानुसारिणीवृति ०४ एवं औपचारि कोsवग्रहस्त मङ्गीकृत्य बहु अवगृह्णातीत्येत दुच्यते, नत्वेकसमयवतनं नैश्चयिकमिति, एवं बहुविधादिषु सर्वत्रोपचारिकाथपणाद व्याख्येयम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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