SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नंदी ४ सविकल्पक निर्णय । ५. धारावाही ज्ञान तथा संस्कार स्मरण । उपाध्याय यशोविजयजी ने व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह आदि को चार अंशों में विभक्त कर जैन न्याय में नई परम्परा का सूत्रपात किया है । पण्डित सुखलालजी ने इस विषय की विस्तार से चर्चा की है "न्याय आदि दर्शनों में प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया चार अंशों में विभक्त है। पहला कारणांश जो संनिकृष्ट इन्द्रियरूप है। दूसरा व्यापारांश जो सन्निकर्ष एवं निर्विकल्प ज्ञानरूप है । तीसरा फलांश जो सविकल्पक ज्ञान या निश्चयरूप है और चौथा परिपाकांश जो धारावाही ज्ञानरूप तथा संस्कार, स्मरण आदि रूप है । उपाध्यायजी ने व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह आदि पुरातन जैन परिभाषाओं को उक्त चार अंशों में विभाजित करके स्पष्ट रूप से सूचना की है कि जैनेतर दर्शनों में प्रत्यक्ष ज्ञान की जो प्रक्रिया है वही शब्दान्तर से जैनदर्शन में भी है । उपाध्यायजी व्यञ्जनावग्रह को कारणांश, अर्थावग्रह तथा ईहा को व्यापारांश, अवाय को फलांश और धारणा को परिपाकांश कहते हैं, जो बिलकुल उपयुक्त है।" प्रस्तुत सूत्र के व्याख्याकारों ने अवग्रह आदि की व्याख्या इस प्रकार की है व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह--१. व्यञ्जन का एक अर्थ है इन्द्रिय विषय । २. इसका दूसरा अर्थ है द्रव्येन्द्रिय-इन्द्रिय की विषय ग्रहण में साधनभूत पौद्गलिक शक्ति जिसकी संज्ञा उपकरणेन्द्रिय है। उपकरणेन्द्रिय के साथ अर्थ का संबंध और संसर्ग होने पर अर्थ व्यक्त होता है । इसलिए यह प्रथम ग्रहण व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। विषय विषयी का सन्निपात और दर्शन के पश्चात् अर्थ के ज्ञान की धारा शुरु होती है। व्यञ्जनावग्रह में वह अव्यक्त रहती है। इसका कालमान है असंख्य समय । व्यञ्जनावग्रह के अन्तिम समय में वह व्यक्त हो जाता है। वह व्यक्त अवस्था अर्थावग्रह है। उसका कालमान एक समय है । व्यञ्जनावग्रह 'को प्रतिबोधक दृष्टांत (नंदी सू. ५२) व मल्लक दृष्टांत (नदी सू. ५३) के द्वारा समझाया गया है। चक्ष और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता इसलिए उसके चार प्रकार हैं। अर्थावग्रह इन्द्रिय और मन सबका होता है इसलिए उसके छः प्रकार हैं। चूर्णिकार ने नोइन्द्रिय अर्थावग्रह इस पद में आए हुए नोइन्द्रिय का अर्थ मन किया है।' वह दो प्रकार का होता है-द्रव्य मन और भाव मन । जीव मनःपर्याप्ति नामकर्म के उदय से मन के प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण कर उन्हें मन के रूप में परिणत करता है वह द्रव्य मन है । मनन परिणाम की क्रिया करने वाला जीव भाव मन है। उसके उपकरणेन्द्रिय से निरपेक्ष अर्थ के चिंतन से होने वाला बोध नोइन्द्रिय अर्थावग्रह है।' अर्थावग्रह के पांच एकार्थक नाम बतलाए गए हैं, वे नाना घोष और नाना व्यञ्जन वाले हैं। उदात्त आदि स्वरों को घोष तथा अभिलाप-अक्षरों को व्यञ्जन कहा जाता है। चूणिकार के अनुसार अवग्रह सामान्य की दृष्टि से चारों एकार्थक हैं और विभागांश की दृष्टि से ये भिन्न लक्षण वाले हैं । अवग्रह तीन प्रकार का होता है.... १. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, परिचय, पृ. ३८ २. नन्दी चूणि, पृ. ३५ : वंजणग्गहणेण सद्दाइपरिणता दव्वा घेत्तव्वा । वंजणे अवग्गहो वंजणावग्गहो, एत्य बंजणग्गहणेण विदियं घेत्तव्वं । ..."जेण करणभूतेण अत्थो वंजिज्जइ तं वंजणं, जहा पदीवेण घडो एवं सद्दादिपरिणतेहि दम्वेहि उवकरणिदियपत्तेहि चित्तेहिं संबद्धेहि संपसत्तेहि जम्हा अत्थो वजिज्जइ त्ति तम्हा ते दव्वा वंजणावग्गहो भण्णति । ३. वही, पृ० ३५ : सो य वंजणावग्गहातो चरिमसमयाणतरं एक्कसमयं अवसिढिदियविसयं गेण्हतो अत्थावग्गहो भवति । ४. वही, पृ० ३५ : चक्खिदियस्स मणसो य वंजणाभावे पढम चेव जं अविसिद्धमत्थग्गहणं कालयो एगसमयं सो अत्थोग्गहो भाणितत्वो। सव्वो वेस विभागेण छव्विहो दंसिज्जति, ण पुण तस्सोग्गहस्स काले सद्दादिविसेसबुद्धी अस्थि । णोइंदियो त्ति-मणो। ५. वही, पृ० ३५ : सो य दब्वमणो भावमणो य। तत्थ मणपज्जत्तिणामझम्मुदयातो जोग्गे मणोदव्वे घेत्तुं मणजोग्ग (ग) परिणामिता दवा दव्वमणो भण्णति । जीवो पुण मणणपरिणामक्रियावण्णो भावमणो । एस उभयस्वो मणदव्वालंबणो जीवस्स नाणवावारो भावमणो भण्णति । तस्स जो उवकरणिदियदुवारनिरवेक्खो घडाइअत्थसरूवचितणपरो बोधो उप्पज्जति सो णोइंदियत्यावग्गहो भवति । ६. वही, पृ० ३५ : एते ओग्गहसामण्णतो पंच वि णियमा एगद्विता । उग्गहविभागे पुण कज्जमाणे उग्गहविभागंसेण भिण्णत्था भवंति । सो य उग्गहो तिबिहो-वंजणोग्गहो सामण्णत्थावरगहो विसेससामण्णत्थावग्गहो य । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy