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________________ प्र० ३, सू० ३८-५०, टि० ४,५ शब्द विमर्श विसुद्ध-यथावस्थित । अम्बाहयफलजोगा-फल का अर्थ है प्रयोजन, अन्य प्रयोजनों से अव्याहत । तिवग्ग-काम, अर्थ और धर्म अथवा त्रैलोक्य । पेयाला-प्रमाण, सार, परिमाण, प्रधान । उवओगदिट्टसारा--विवक्षित कर्म में मन का अभिनिवेश, दत्तचित्तता । कम्मपसंग-कर्म का अभ्यास । परिघोलणा-विचार । साहुक्कारफलवई--साधुवाद देने से फलवती होनेवाली । सूत्र ३९-५० ५. (सूत्र ३६-५०) प्रस्तुत आलापक में श्रुतनिश्रित के चार प्रकार बतलाए गए हैं—अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । स्थानाङ्ग सूत्र में अश्रुतनिश्रित के अवग्रह--व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह का उल्लेख मिलता है।' जिनभद्रगणि ने अश्रुतनिश्रित मति के भी अवग्रह आदि चार भेदों का निर्देश किया है। स्थानाङ्ग में केवल अवग्रह का उल्लेख है । ईहा आदि का उल्लेख जिनभद्रगणि का स्वोपज्ञ है अथवा किसी पूर्ववर्ती ग्रंथ का आधार लिया हुआ है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि यह उल्लेख किसी अन्य ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। इसलिए अश्रुतनिश्रित के साथ ईहा आदि का प्रयोग उनका स्वोपज्ञ ही होना चाहिए । अश्रुतनिश्रित और उसके चार भेदों की परम्परा उत्तरकाल में सीमित रही। मतिज्ञान के २८ भेदों की परम्परा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों के ग्रंथों में उपलब्ध है। यह प्राचीन प्रतीत होती है प्राचीन साहित्य में आवश्यक नियुक्ति, तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, षट्खण्डागम, कषाय पाहुड़ आदि ग्रंथों में उसका उल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम इसका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में मिलता है । आगम साहित्य में पंचविध ज्ञान की परम्परा मिलती है।' अवग्रह आदि का विकास विषय ग्रहण करने की प्रक्रिया के संदर्भ में हुआ है । इन्द्रियों के द्वारा विषय के ग्रहण से लेकर निर्णय तक की एक परम्परा है। इन्द्रिय और अर्थ का उचित देश में अवस्थान होने पर अर्थ का ग्रहण होता है । ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार है१. इन्द्रिय और अर्थ का उचित देश में अवस्थान । २. दर्शन--सत्ता मात्र का ग्रहण । ३. व्यञ्जनावग्रह---इन्द्रिय और अर्थ के संबंध का ज्ञान । ४. अर्थावग्रह--अर्थ का ग्रहण अथवा ज्ञान, जैसे---मैंने कुछ देखा है। ५. ईहा-पर्यालोचनात्मक ज्ञान, जैसे--यह घट होना चाहिए। ६. अवाय--निर्णय, यह घट ही है। ७. धारणा--अविच्युति, घट के ज्ञान का संस्कार रूप में बदल जाना। न्याय और वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया प्रायः समान रूप में मिलती है१, इन्द्रिय और विषय का सन्निकर्ष । २. निर्विकल्पक बोध । ३. संशय तथा संभावना । १. द्रष्टव्य-ठाणं २।१०३ का टिप्पण। २. विशेषावश्यक भाष्य, गा० ३०४-३०६: किह पडिकुक्कुडहीणो जुज्झे बिबेण वग्गहो, ईहा । कि सुसिलिट्ठमवाओ दप्पणसंकंतबिब ति ॥ जह उग्गहाइसामण्णउ वि सोइंदियाइणा भेओ। तह उग्गहाइसामण्णओ वि तमणिस्सिया भिन्नं ॥ अट्ठावीसइभेयं सुपनिस्सियमेव केवलं तम्हा । जम्हा तम्मि समते पुगरस्यनिस्सियं भणियं ॥ ३. उवंगसुत्ताणि, रायपसेणियं, सू० ७३९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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