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________________ १. ( सूत्र ३४, ३५ ) प्रस्तुत आलापक में दो ज्ञान परोक्ष बतलाए गए हैं। इन्द्रिय और मन आत्मा से परे हैं उनके माध्यम से जो ज्ञान होता है वह परोक्ष है । अनुमान की भांति ये पर निमित्त से होते हैं इसलिए ये आत्मा के लिए परोक्ष हैं ।' टिप्पण सूत्रकार ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्वीकार किया और आभिनिबोधिकज्ञान जो इन्द्रियजन्य ज्ञान है, को इस विरोधाभास का चूर्णिकार ने समाधान किया है। उसमें विशेषावश्यक भाष्य का अनुसरण किया गया है। ४ का टिप्पण) । सूत्र ३४,३५ सूत्रकार ने आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान में अभेद और भेद का प्रतिपादन किया है। स्वामी, काल, कारण और क्षयोपशम की तुल्यता-इन चार दृष्टियों से दोनों समान हैं। इनमें व्याप्ति संबंध है इसलिए अन्योन्यानुगत बतलाया गया है। यह चूर्णिकार का अभिमत है । जिनभद्रगणि ने दोनों की समानता के पांच बिन्दु बतलाए हैं- स्वामी, काल, कारण, विषय और परोक्षत्व । उनके अनुसार श्रुतज्ञान मतिज्ञान का ही एक विशिष्ट भेद है ।" सूत्रकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि मति और श्रुत में अभेद है तो फिर दो ज्ञान की परिकल्पना क्यों ? इसका समाधान भी सूत्र में प्रस्तुत है । भेद के दो हेतु बतलाए गए हैं निरुक्त और पौर्वापयं । चूर्णिकार ने बतलाया है कि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों पूर्ण लोकाकाश में प्रतिष्ठित होने के कारण अन्योन्यानुगत है फिर भी लक्षण भेद से उनमें भेद किया जा सकता है। इसी प्रकार अन्योन्यानुगत मति और श्रुत में लक्षण और अभिधान के भेद से भेद किया गया है ।" अभिनिबोध से होने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक है और श्रुत से होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । श्रुतज्ञान में विशेषता है। उसे समझे बिना श्रुतज्ञान के स्वरूप को नहीं समझा जा शब्द का अनुसरण होता है फिर वाच्यवाचक भाव रूप में उसकी संयोजना होती है, इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है ।" आभिनिबोधिकज्ञान के दो हेतु हैं - इन्द्रिय और मन । श्रुतज्ञान के भी ये दो हेतु हैं । हेतुद्वय की समानता होने पर भी सकता। संकेत और श्रुत ग्रंथ के अनुसार किसी इस प्रकार आन्तरिक शब्दोच्चार के साथ श्रुतज्ञान की दूसरी विशेषता है कि जो ज्ञान शब्दोल्लेख सहित उत्पन्न होता है वह अपने में प्रतिभासमान अर्थ के वाचक शब्द को उत्पन्न करता है। उससे दूसरे को विवक्षित अर्थ का प्रत्यय कराता है।" १. नन्दी चूर्ण, पृ. ३१ अक्खस्स इन्द्रिय-मणा परा, तेसु जं गाणं तं परोवणं मतिते परोक्षमात्मनः परनिमित्तत्वात् अनुमानवत् । ४. विशेषावश्यक भाष्य, गा ८५, ८६ : परोक्ष बतलाया है । (द्रष्टव्य, नंदी सू० २, वही, पृ. ३१ २. बही, पृ. ३१मति मुताणं अगतसगतो सामि काल-कारण-योसमतुल्लतनतो व एमतं पावति । सामि-काल-कारण- विपश्यत्ततुल्लाई। सम्मा साथि व गाईए मह-सुबाई ॥ माइपुवं जेण सुणाईए मई, विसिडो वा । मइभेओ चेव सुयं तो मइसमणंतरं भणियं ॥ Jain Education International अभिणिज्झती ५. नन्दी चूर्ण, पृ. ३१ : आगासपइट्टिताणं धम्मा-ऽधम्माण अनागतानं लक्खणभेदाभेदो दिट्ठी सहा मतिता विसामि कालादि अभेदे विभेद त्यादि । एवं लक्खणाऽभिधाणभेदा भेदो तेसि । ६. विशेषावश्यक भाष्य, गा. १०० की वृत्ति--संकेतकाल - प्रवृत्तं श्रुतसंबन्धिनं वा घटादिशन्दमनुत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य 'घटो घट:' इत्याद्यन्तत्पाकारमन्तः शब्दोल्लेखान्वितमिन्द्रियादिनिमित्तं यज्ज्ञामुदेति तच्छू तज्ञानम् । ७. वही, गा. १०० की वृत्ति: शब्दोल्लेखसहितं विज्ञानमुत्पन्नं स्वप्रतिभासमानार्थप्रतिपादकं शब्दं जनयति तेन च परः प्रत्याय्यते, इत्येवं निजकार्थोक्तिसमर्थमिदं भवति, अभिलाप्यवस्तुविषयमिति यावत् । , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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