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नागेन्द्रगच्छ
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भी मिलती है६४ जिसमें आदिनाथ एवं नेमिनाथ के प्रति भक्तिभाव व्यक्त करते हुए वस्तुपाल की दानशीलता, धार्मिकता आदि की चर्चा के साथ उसके दीर्घायु होने की कामना की गयी है ।
वस्तुपाल द्वारा धवलक्क में निर्मित उपाश्रय में प्रवास करते हुए उदयप्रभसूरि ने धर्मदासगणितकृत उपदेशमाला ( रचनाकाल प्रायः ईस्वी सन् छठीं शताब्दी का मध्य भाग) पर वि० सं० १२९९ / ई० सन् १२४३ में कर्णिका नामक टीका की रचना की ६५ । इसकी प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि टीकाकार ने अपने गुरु के आदेश पर इसकी रचना की । कनकप्रभसूरि के शिष्य और प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक प्रद्युम्नसूरि ने इसका संशोधन किया था । उदयप्रभसूरि ने आरम्भसिद्धि नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ की भी रचना की । इन्हीं के द्वारा ४९ गाथाओं में रचित शब्दब्रह्मोल्लास नामक एक अपूर्ण ग्रन्थ भी मिलता है जो पाटण के खेतरवसही भण्डार में संरक्षित है। वस्तुपाल का गिरनार शिलालेख इन्हीं की कृति है । देवेन्द्रसूरि
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ये मध्ययुग में नागेन्द्रगच्छ की द्वितीय शाखा के आदिम आचार्य वीरसूरि की परम्परा में हुए धनेश्वरसूरि के शिष्य और विजयसिंहसूरि के कनिष्ठ गुरुभ्राता थे । इनके द्वारा रचित एकमात्र कृति है चन्द्रप्रभचरित जो वि० सं० १२६४ की रचना है । संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में ५३२५ श्लोक हैं । इनके बारे में विशेष विवरण नहीं मिलता।
वर्धमानसूरि
जैसा कि लेख के प्रारम्भ में हम देख चुके हैं ये वीरसूरि की परम्परा में हुए धनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और विजयसिंहसूरि के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित वासुपूज्यचरित (रचनाकाल वि० सं० १२९९) १२वें तीर्थंकर पर संस्कृत भाषा में उपलब्ध एकमात्र काव्य है । इसमें ५४९४ श्लोक हैं और यह सरल भाषा में है । ग्रन्थ के अन्त में २८ श्लोकों की लम्बी
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