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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास इसके अतिरिक्त इन्होंने प्रद्युम्नसूरि द्वारा रचित समरादित्यसंक्षेप ( रचनाकाल वि० सं० १३२४ / ई० स० १२६८) का संशोधन भी किया । सुकृतकीर्तिकल्लोकिनी ९ १७९ श्लोकों की लम्बी प्रशस्ति है जो शत्रुंजय के आदिनाथ जिनालय में किसी शिलापट्ट पर उत्कीर्ण कराने लिये रची गयी थी | इसमें चापोत्कट ( चावड़ा) और चौलुक्य नरेशों के विवरण के अतिरिक्त वस्तुपाल के शौर्य, उसकी तीर्थयात्राओं के विवरण के साथसाथ उसके वंशवृक्ष, उसके मंत्रित्त्वकाल एवं उसके परिवार की प्रशंसा की गयी है | रचना के अन्तिम भाग में ग्रन्थकार ने अपने गच्छ की लम्बी गुर्वावली देते हुए अपने गुरु विजयसेनसूरि के प्रति अत्यन्त आदरभाव प्रदर्शित किया है।
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धर्माभ्युदयमहाकाव्य १५ सर्गों में विभाजित है । इसमें कुल ५०४१ श्लोक हैं । इस ग्रन्थ में वस्तुपाल द्वारा की गयी संघयात्राओं को प्रसंग बनाकर धर्म के अभ्युदय का सूचन करने वाली धार्मिक कथाओं का संग्रह है । इस कृति के भी अन्त में ग्रन्थकार ने अपनी गुरु-परम्परा की लम्बी तालिका देते हुए अपने गुरु की प्रशंसा की है । यह वि० सं० १२९० से पूर्व रची गयी कृति मानी जाती है। इसकी वि० सं० १२९० की स्वयं महामात्य वस्तुपाल द्वारा लिपिबद्ध की गयी एक प्रति शान्तिनाथ ज्ञान भण्डार, खम्भात में संरक्षित है६२
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उदयप्रभसूरि ने वस्तुपाल द्वारा स्तम्भतीर्थ (खंभात) में निर्मित आदिनाथ जिनालय में उत्कीर्ण कराने हेतु १९ श्लोकों की एक प्रशस्ति की भी रचना की | इसका अन्तिम भाग गद्य में है । इसमें जिनालय के निर्माता और उसके कुलगुरु विजयसेनसूरि के विद्यावंशवृक्ष के अतिरिक्त अन्य कोई सूचना नहीं मिलती । इन्हीं के द्वारा रचित ३३ श्लोकों की वस्तुपालस्तुति नामक कृति भी मिलती है जो किसी घटना विशेष के अवसर पर या किसी सुकृति की स्मृति में रची गयी प्रतीत नहीं होती बल्कि भिन्न-भिन्न अवसरों पर वस्तुपाल की प्रशंसा में रचे गये पद्यों का संकलन है। उदयप्रभसूरि द्वारा रचित ५ श्लोकों की एक अन्य प्रशस्ति
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