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सरवालगच्छ का संक्षिप्त इतिहास निर्ग्रन्थ दर्शन के श्वेताम्बर श्रमण सम्प्रदाय के अन्तर्गत पूर्वमध्ययुग के चैत्यवासी गच्छों में सरवालगच्छ भी एक था । चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) की एक शाखा के रूप में इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती।
सरवालगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये सीमित संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य, जो वि० सं० १११० से वि० सं० १२८३ /ई० सन् १०५४ से १२२७ तक के हैं, तथा एक ही ग्रन्थ प्रशस्ति मिलती है।
सरवालगच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख करने वाला वि० सं० १११० / ई० सन् १०५४ का एक लेख पार्श्वनाथ की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण है। पूरनचन्द नाहर ने इस लेख की वाचना इस प्रकार दी है : श्री सरवालगच्छे असामूकेन कारिता ॥ संतु १११० .... |
यह प्रतिमा आज सुमतिनाथजिनालय, अजीमगंज जिला मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल में है।
यद्यपि इस लेख में इस गच्छ के किसी आचार्य या मुनि का उल्लेख प्राप्त नहीं होता, फिर भी सरवालगच्छ का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम साक्ष्य होने से महत्त्वपूर्ण है। यही बात इस गच्छ से सम्बद्ध द्वितीय लेख, जो वि० सं० ११४५/ई० सन् १०८९ का है', के संबंध में कही जा सकती है।
कालक्रम की दृष्टि से इस गच्छ से सम्बदन्ध तृतीय लेख वि० सं० ११४९/ई० सन् १०९३ का है, जो राधनपुर स्थित विमलनाथ जिनालय में
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