________________
संडेरगच्छ
१२६३ मिलता है।
वि० सं० १६८९ का एक लेख,१३७ जो पार्श्वनाथजिनालय में स्थित पुण्डरीकस्वामी की मूर्ति पर उत्कीर्ण है, भी संडेरगच्छ से ही सम्बन्धित है। परन्तु इसमें प्रतिष्ठापक आचार्य का नाम नहीं मिलता है। इसके पश्चात् वि० सं० १७२८ और वि० सं० १७३२ के प्राप्त अभिलेख भी सन्डेरगच्छ से ही सम्बन्धित हैं। इनका विवरण इस प्रकार है -
वि० सं० १७२८ वैशाख सुदि १४१३८ देहरी का लेख, लूणवसही,
आबू वि० सं० १७२८ वैशाख सुदि ११,१३९ देहरी का लेख, लूणवसही,
आबू वि० सं० १७२८ वैशाख सुदि १५१४० देहरी का लेख, लूणवसही,
आबू वि० सं० १७३२ वैशाख सुदि ७१४१, जैनमंदिर, छाणी
इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि १६वीं शताब्दी (विक्रमी) के पश्चात् ही इस गच्छ का गौरवपूर्ण इतिहास समाप्त हो गया, तथापि १७वीं - १८वीं शताब्दी तक इसका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहा और बाद में यह तपागच्छ में विलीन हो गया।१४२
(देखें - अगले पृष्ठ पर तालिका)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org