________________
संडेरगच्छ
१२४१ श्रावक उक्त (श्रावक) परिवार का ही एक सदस्य होने से इसका रचनाकाल वि० सं० की चौदहवीं शताब्दी का मध्य माना जा सकता है। इस प्रशस्ति में यशोभद्रसूरि के पश्चात् शालिसूरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि
और फिर ईश्वरसूरि का नाम आता है और अन्त में उसी श्रावक परिवार की वंशावली दी गयी है। इस प्रशस्ति से यह सिद्ध हो जाता है कि संडेरगच्छ में इन्हीं चार पट्टधर आचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति होती रही। इस तथ्य का उल्लेख करने वाला यह सर्वप्रथम साहित्यक प्रमाण है।
परिशिष्टपर्व के वि० सं० १४७९ / ई० स० १४२२ में प्रतिलेखन की दाता प्रशस्ति
इस प्रशस्ति के अनुसार संडेरगच्छीय आचार्य यशोभद्रसूरि के संतानीय शांतिसूरि के शिष्य मुनि विनयचन्द्र ने श्री सोमकलश के उपदेश से वि० सं० १४७९ ज्येष्ठ सुदि प्रतिपदा मंगलवार को उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि तैयार की। वि० सं० १४७९ में आचार्य शांतिसूरि संडेरगच्छ के प्रमुख थे, ऐसा इस प्रशस्ति से स्पष्ट होता है।
कल्पसूत्र के वि० सं० १५८६ में प्रतिलेखन की दाता प्रशस्ति
इस प्रशस्ति में संडेरगच्छीय आचार्यों की जो गुर्वावली मिलती है, वह इस प्रकार है -
यशोभद्रसूरि
शालिसूरि
सुमतिसूरि
शांतिसूरि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org