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________________ विद्याधरगच्छ १२२९ पंचाशक और सम्बोधप्रकरण की प्रशस्तियों में उन्होंने स्वयं के लिए 'भवविरह' शब्द का प्रयोग किया है। ___भद्रेश्वरसूरि द्वारा रचित कहावली (ई० स० की १२वीं शताब्दी) में इनके लिये 'भवविरहसूरि' शब्द का कई बार प्रयोग किया गया है। कहावली में इनके दो शिष्यों-जिनभद्र और वीरभद्र का नाम मिलता है११ जबकि उत्तरकालीन विभिन्न ग्रन्थों में इनके शिष्यों के अन्य ही नाम दिये गये हैं। निर्वाणकलिका (प्रायः ९५० ई० स०) के रचनाकार पादलिप्तसूरि (तृतीय) भी विद्याधरकुल के थे। उक्त कृति की प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं को संगमसिंह का प्रशिष्य और मण्डनगणि का शिष्य बतलाया है : श्रीविद्याधर वंशभूषणमणिः प्रख्यातनामा भुवि । श्रीमन्सङ्गमसिंह इत्यधिपतिः श्वेताम्बराणामभूत् ।। शिष्यस्तस्य बभूव मण्डनगणिर्योवाचनाचार्य । इत्युच्चैः पूज्यपदं गुणैर्गुणवतामग्रेसरः प्राप्तवान् ॥१॥ क्षान्तेः क्षेत्रं गुणमणिनिधिस्तस्य पादलिप्तसूरिर्जातः शिष्यो निरुपमयशः पूरिताशावकाशः ॥ विन्यस्तेयं निपुणमनसा तेन सिद्धान्तमन्त्राण्यालोच्यैषा विधिमविदुषां पद्धतिर्बोधिहेतोः ॥ २ ॥ विद्याधरकुल से संबद्ध अगला साक्ष्य है वि० सं० १०६४ / ई० स० १००८ का प्रतिमालेख, जो शत्रुजंय पर स्थित पुण्डरीकस्वामी की संगमरमर की प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। श्री अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह ने इसकी वाचना दी है,१३ जो इस प्रकार है : श्रीमद्युगादिदेवस्य पुंडरीकस्य च क्रमौ । ध्यात्वा शत्रुजये शुद्धयन् सल्लेखाध्यानसंयमैः ॥ १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003615
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages698
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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