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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास १ - १. ॐ देवधर्मोयं १ - २. वियहर कुलेयो १ - ३. गुण
लिपिशास्त्र के आधार पर शाह जी ने इस प्रतिमा लेख को ई० स० ६५० का बतलाया है।
आकोट से ही प्राप्त ऋषभदेव और पार्श्वनाथ की धातु-प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में भी विद्याधरकुल का उल्लेख मिलता है। डा० शाह ने इन लेखों को ई० स० ७०० का माना है। - खानदेश से प्राप्त और वर्तमान में लालभाई दलपतभाई संग्रहालय, अहमदाबाद में संरक्षित भगवान् आदिनाथ की धातु प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में विद्याधरगच्छ ऐसा अभिधान मिलता है। प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख की लिपि के आधार पर डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने ई० स० की आठवी शताब्दी का माना है।
ई० स० की आठवीं शताब्दी में विद्याधर कुल में आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे महान् आचार्य हो चुके हैं, जिनके द्वारा प्रणीत छोटी-बड़ी अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियाँ आज मिलती हैं । आवश्यकटीका की प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं को आचार्य जिनभट (जिनभद्र) का प्रशिष्य और जिनदत्तसूरि का शिष्य एवं याकिनी महत्तरा नामक साध्वी का धर्मपुत्र कहा है : ___"समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका । कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यसा धर्मतो जाइणीमहत्तरासूनोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य ।"
(आवश्यकटीका की प्रशस्ति) हरिभद्रसूरि के उपनाम के रूप में 'भवविरह' नामक विशेषण प्रसिद्ध था । अष्टकप्रकरण, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, पंचवस्तुटीका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, षोडशक, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, संसारदावानलस्तुति, धर्मसंग्रहणी, उपदेशपद,
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