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विद्याधरकुल / विद्याधरगच्छ उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ संघ के अल्पचेल (बाद में श्वेताम्बर) सम्प्रदाय के अंतर्गत विद्याधरकुल (बाद में विद्याधरगच्छ) का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा। अब से लगभंग ५०० वर्ष पूर्व तक विद्यमान इस गच्छ की उत्पत्ति कोटिकगण की विज्जाहरी (विद्याधरी) शाखा से हुई, ऐसा पर्दूषणाकल्प की "स्थविरावली" (जिसका प्रारम्भिक भाग ई० स० १०० के बाद का माना जाता है) से ज्ञात होता है। इसके अनुसार आर्य सुहस्ति के प्रशिष्य
और स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध के शिष्य विद्याधर गोपाल से विद्याधरशाखा का उद्भव हुआ। विद्याधरशाखा ही आगे की शताब्दियों में 'विद्याधरकुल' के रूप में प्रसिद्ध हुई।
विद्याधरकुल (शाखा) से संबद्ध अगला साक्ष्य ई० स० की छठी शताब्दी के मध्य का है जो गुजरात प्रान्त में आकोटा नामक स्थान से प्राप्त धातु की मितिविहीन अम्बिका की प्रतिमा पर उत्कीर्ण है । डा० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
१- १. (ॐ) दे (व) धर्मोयं (वि) य १- २. ह (२) कुले xxxह १- ३. ज (र -? रि?) णि (?) x
शाह जी ने उक्त प्रतिमालेख की लिपि के आधार पर ई० स० की छठी शती के अंतिम चरण का बतलाया है।
विद्याधरकुल से सम्बद्ध अगला साक्ष्य भी आकोटा से ही प्राप्त हुआ है । यह साक्ष्य ऋषभदेव की प्रतिमा पर उत्कीर्ण है । इसकी वाचना निम्नानुसार दी गयी है:
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