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राजगच्छ
१२०३ सिद्धसेनसूरि : ये देवभद्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने वडगच्छीय नेमिचन्द्रसूरिविरचित प्रवचनसारोद्धार पर वृत्ति की रचना की । इसी प्रशस्ति के अन्तर्गत वृत्तिकार ने अभयदेवसूरि से लेकर अपने गुरु देवप्रभसूरि तक राजगच्छीय गुर्वावली के साथ-साथ इस वृत्ति के रचनाकाल का भी उल्लेख किया है :
करिसागरविसङ्खये श्रीविक्रमनृपतिवत्सरे चैत्रे । पुर्किदिने शुक्लाष्टम्यां वृत्तिः समाप्ताऽसौ ॥ १८ ॥
श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई,५० हरिदामोदर वेलणकर५ आदि विद्वानों ने वृत्तिकार द्वारा दिये गये रचनाकाल करिसागरविसड्खये की करि=८, सागर=४ और रवि=१२ अर्थात् १२४८ माना है। किन्तु यदि वृत्तिकार द्वारा प्रशस्तिगत दी गयी अभयदेवसूरि से सिद्धसेनसूरिपर्यन्त राजगच्छीय आचार्यपरम्परा पर दृष्टि डालें, तो उक्त मत ग्राह्य प्रतीत नहीं होता । चूंकि अभयदेवसूरि के पश्चात् और सिद्धसेनसूरि के पूर्व ८ आचार्य हो चुके हैं और अभयदेवसूरि का काल वि० सं० की ११वीं शती का पूर्वार्ध निश्चित किया जा चुका है। यदि प्रत्येक मुनि का आचार्यत्वकाल लगभग २५ वर्ष माना जाये तो अभयदेवसूरि के नवीं पीढ़ी में हुए सिद्धसेनसूरि का काल वि० सं० १२७५ के आसपास ठहरता है। साथ ही सात की संख्या के लिए साधारणतया सागर शब्द का ही प्रयोग होता है, अतः ऐसी स्थिति में देसाई और वेलणकर आदि विद्वानों द्वारा मान्य प्रवचनसारोद्धारवृत्ति की रचनातिथि वि० सं० १२४८ के स्थान पर वि० सं० १२७८/ई० सन् १२२२ मानने में कोई बाधा नहीं दिखलाई देती।
मामिक्यचन्द्रसूरि : ये राजगच्छ के प्रभावशाली और विद्वान् आचार्य थे । इन्होंने पार्श्वनाथचरित, शांतिनाथचरित तथा आचार्य मम्मट के काव्यप्रकाश पर संकेत नामक टीका की रचना की । पार्श्वनाथचरित का रचनाकाल वि० सं० १२७६/ई० सन् १२२० माना गया
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