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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास में आयीं । एक शाखा के प्रधान शीलभद्रसूरि हुए और दूसरी शाखा के देवप्रभसूरि (प्रथम)।
शीलभद्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित न तो कोई लेख मिला है और न ही इनकी किसी कृति का कही नामोल्लेख है, फिर भी राजगच्छीय ग्रन्थकारों ने बड़े ही सम्मान के साथ इनका उल्लेख किया है। जैसा कि ग्रन्थप्रशस्तियों के आधार पर पीछे हम देख चुके हैं, इनके ६ शिष्यों का उल्लेख मिलता है। इनमें अजितसिंहसूरि (द्वितीय) को छोड़कर शेष ५ शिष्यों की परम्परा आगे चली । धनेश्वरसूरि (द्वितीय) अल्पजीवी थे, अतः इनके पट्टधर पार्श्वदेवगणि अपरनाम श्रीचन्द्रसूरि हुए, जिनकी परम्परा में प्रभाचन्द्रसूरि हुए । भरतेश्वरसूरि की परम्परा में माणिक्यचन्द्रसूरि तथा सर्वदेवसूरि की परम्परा में मानतुंगसूरि हुए। धर्मघोषसूरि की शिष्यसन्तति अपने गुरु के नाम पर धर्मघोषगच्छीय कहलायी।
धनेश्वरसूरि (द्वितीय) : जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है आप शीलभद्रसूरि के शिष्य और पट्टधर थे। आप द्वारा रचित एकमात्र कृति है सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणवृत्ति जो वि० सं० ११७१/ई० सन् १११५ में रची गयी है। इसके लेखन में इन्हें अपने शिष्य पार्श्वचन्द्रगणि से सहायता प्राप्त हुई थी, इस बात का इन्होंने अपनी कृति की प्रशस्ति में उल्लेख किया
पार्श्वदेवगणि अपरनाम श्रीचन्द्रसूरिः जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है आप शीलभद्रसूरि के दीक्षाशिष्य तथा अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता धनेश्वरसूरि (द्वितीय) के पट्टधर थे। सूरि-पद प्राप्ति से पूर्व इनका नाम पार्श्वदेवगणि था । ये अपने समय के अद्वितीय विद्वान् थे। इनके द्वारा रचित १२ रचनायें अद्यावधि उपलब्ध हैं।४६
१. न्यायप्रवेशवृत्तिपंजिका रचनाकाल वि० सं० ११६९ /ई० सन् १११३
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