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________________ ११९९ राजगच्छ दीक्षा ग्रहण की और धनेश्वरसूरि के नाम से विख्यात हुए । चूंकि दीक्षित होने के पूर्व ये राजा थे, अंत: इनकी शिष्य सन्तति (चन्द्रगच्छ की एक शाखा) राजगच्छ के नाम से विख्यात हुई। राजगच्छीय सिद्धसेनसूरि ने प्रवचनसारोद्धारटीका (रचनाकाल वि० सं० १२७८/ई० सन् १२२२) की प्रशस्ति में इन्हें परमार नरेश मुंज (ई० सन् ९७३-९९६) द्वारा सम्मानित बतलाया है। राजगच्छ के ही माणिक्यचन्द्रसूरि ने पार्श्वनाथचरित (रचनाकाल वि० सं० १२७६/ई० सन् १२२०) की प्रशस्ति में अभयदेवसूरि के शिष्य के रूप में धनेश्वरसूरि का नहीं अपितु जिनेश्वरसूरि का उल्लेख करते हुए उन्हें परमार नरेश मुंज द्वारा सम्मानित बतालाया हैं । अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि ये धनेश्वरसूरि और जिनेश्वरसूरि क्या दो भिन्न-भिन्न आचार्य हैं या एक ही आचार्य के दो नाम हैं ? अथवा पार्श्वनाथचरित की मूलप्रशस्ति में शायद बाद के लिपिकार की भूल से 'ध' के स्थान पर 'जि' लिख दिया गया और वह भूल अन्य प्रतियों में भी चलती रही है ०३ ! जो भी हो, इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना कठिन हैं। अजितसिंहसूरि (प्रथम): राजगच्छीय ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों की प्रशस्ति में इनका उल्लेख करते हुए इन्हें धनेश्वरसूरि (प्रथम) का शिष्य एवं पट्टधर बतलाया है । धनेश्वरसूरि (द्वितीय) एकमात्र राजगच्छीय विद्वान् हैं, जिन्होंने अपनी कृति सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणवृत्ति (रचनाकाल वि० सं० ११७१/ई० सन् १११५) की प्रशस्ति में न केवल इनका उल्लेख किया है, अपितु इन्हें विश्रान्तविद्याधर नामक कृति की रचना का श्रेय भी दिया है। विश्रान्तविद्याधर आज अनुपलब्ध है। इनके पट्टधर वर्धमानसूरि हुए। शीलभद्रसूरि : जैसा कि राजगच्छीय गुरु-परम्परा की तालिका से स्पष्ट है, इनके समय से राजगच्छ की दो अलग-अलग शाखायें अस्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003615
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages698
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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