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राजगच्छ
११९७ श्रावक-श्राविका और प्रतिष्ठापक आचार्य भी एक ही हैं, अन्तर केवल प्रतिष्ठावर्ष का है। ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न उठता है कि क्या ये दोनों लेख कुन्थुनाथ की अलग-अलग दो चौबीसी पट्ट पर उत्कीर्ण हैं या एक ही चौबीसी का लेख है जिसका संग्रहकार ने भ्रमवश दो बार पाठ ले लिया
और उनको दोनों वाचनाओं में किन्ही अज्ञात कारणों से प्रतिष्ठावर्ष के पाठ में भेद आ जाने से यह गड़बड़ी उत्पन्न हो गयी, यह विचारणीय है।
राजगच्छ का उल्लेख करने वाला एक लेख वि० सं० १५१० का भी है, परन्तु इसमें प्रतिष्ठापक आचार्य का नाम मिट गया है। लेख का मूल पाठ इस प्रकार है :
संवत् १५१० वर्षे वैशाख वदि १३ सोमे.......श्रीसंघ श्रीमहावीरबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीराजगच्छे ..... उसूरिभिः ॥
राजगच्छ के प्रमुख आचार्यों और ग्रन्थकारों का परिचय इस प्रकार
है:
प्रद्युम्नसूरिः श्वेताम्बर जैन परम्परा में प्रद्युम्नसूरि नाम के कई विद्वान् मुनि और आचार्य हो चुके हैं । विवेच्य प्रद्युम्नसूरि चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) की एक शाखा राजगच्छ के प्रथम आचार्य धनेश्वरसूरि(प्रथम) के दादागुरु थे। माणिक्यचन्द्रसूरि कृत पार्श्वनाथचरित, प्रभाचन्द्रसूरि कृत प्रभावकचरित और चन्द्रगच्छीय प्रद्युम्नसूरि कृत समरादित्यसंक्षेप आदि ग्रन्थों से इनके बारे में कुछ जानकारी प्राप्त होती है जिसके अनुसार इन्होंने अल्लू की राजसभा में दिगम्बरमतावलम्बियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया एवं सपादलक्ष तथा त्रिभुवनगिरि के राजाओं को जैन धर्म में दीक्षित किया । अल्लू को नागदा के गुहिलशासक भर्तृपट्ट के पुत्र अल्लट (वि० सं० १००८-२८ /ई० सन् ९५२-७२) से समीकृत किया जा सकता है। प्रद्युम्नसूरि के बारे में विशेष विवरण का अभाव है। इनके शिष्य और पट्टधर अभयदेवसूरि हुए।
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