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राजगच्छ
११९१ भरतेश्वरसूरि की परम्परा में माणिक्यचन्द्रसूरि हुए । धर्मघोषसूरि की शिष्यसंतति उनके नाम पर धर्मघोषगच्छ के नाम से विख्यात हुई ।१° सर्वदेवसूरि की परम्परा में मानतुंगसूरि हुए। ___अज्ञातकृतक राजगच्छपट्टावली १ जो १६वीं शती में रची गयी प्रतीत होती है, में नन्नसूरि को इस गच्छ का आदिम आचार्य कहा गया है। उनके पट्ट पर अजित-यशो-वादि सूरि हुए, जिनके पट्ट पर सर्वदेवसूरि आसीन हुए । सर्वदेवसूरि के पट्टधर प्रद्युम्नसूरि और उनके पश्चात् अभयदेवसूरि आदि वही नाम दिये गये हैं, जो ग्रन्थप्रशस्तियों में आ चुके
राजगच्छीयपट्टावली और ग्रन्थप्रशस्तियों में यह अन्तर क्यों हैं ! इस पट्टावली से तो यही लगता है कि धनेश्वरसूरि, विजयसिंहसूरि, देवप्रभसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, मानतुंगसूरि, प्रभाचंद्रसूरि आदि ने अपने ग्रन्थप्रशस्तियों की गुर्वावली में उक्त प्रथम तीन नामों को विस्तृत कर दिया है। अब यह प्रश्न उठता है कि वस्तुतः ये तीन नाम छोड़ दिये गये हैं या पट्टावलीकार ने इसे भ्रमवश कहीं से उठा कर जोड़ दिया है ! इसके स्पष्टीकरण के लिये हमें अन्यत्र प्रयास करना होगा।
वडगच्छीय आचार्य नेमिचन्द्रसूरि विरचित उत्तराध्ययनसूत्र की सुखबोधावृत्ति [रचनाकाल वि० सं० ११४३/ई० सन् १०८७] की वि० सं० १३०७ /ई० सन् १२५१ में लिखी गयी प्रतिलिपि की दाताप्रशस्ति में सर्वप्रथम नन्नसूरि का नाम आता है । उनके पश्चात् अमित यश वाले वादिसूरि हुए, जिनके पट्ट पर प्रद्युम्नसूरि विराजित हुए । यहां तक राजगच्छपट्टावली और उक्त प्रशस्ति की गुर्वावली में साम्य है, अन्तर केवल इतना ही है कि राजगच्छीयपट्टावली में उल्लिखित अजितयशोवादि के स्थान पर अमितयशोवादि नाम दिया गया है।
प्रो० एम० ए० ढांकी का मत है कि राजगच्छीयपट्टावली में उल्लिखित अजित-यशो-वादि वस्तुत: उत्तराध्ययनसूत्र सुखबोधावृत्ति
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