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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास की वि० सं० १३०७/ई० सन् १२५१ में लिखी गयी प्रतिलिपि की दाताप्रशस्ति में उल्लिखित अमितयशोवादि अर्थात् अपरिमित यशवाले वादिसूरि होना चाहिए, क्यों कि प्रतिलिपिकार की भूल से 'अमित' के स्थान पर 'अजित' अर्थात् 'म' के स्थान पर 'ज' हो जाना कठिन नहीं हैं। संभवतः राजगच्छपट्टावली के रचनाकार की दृष्टि में उक्त दाताप्रशस्ति आयी होगी और उन्होंने इसमें प्रद्युम्नसूरि का नाम देखकर गच्छवैभिन्य की उपेक्षा करते हुए प्रद्युम्नसूरि के पूर्व में आचार्यों के नामों को अपने गच्छ की गुर्वावली में सम्मिलित कर लिया होगा। प्रो० ढांकी का उक्त कथन सत्य प्रतीत होता है, क्यों कि अन्य गच्छ या आम्नाय के प्रसिद्ध आचार्यों को अपने ही गच्छ या आम्नाय से सम्बद्ध करने का यह एकमात्र उदाहरण नहीं हैं। इसी प्रकार राजगच्छपट्टावली में धर्मघोषगच्छ के आचार्यों को भी राजगच्छीय ही बतलाया गया है । वस्तुतः राजगच्छीय धर्मघोषसूरि के मृत्योपरान्त उनकी शिष्य-सन्तति धर्मघोषगच्छीय कहलाने लगी और उसका स्वतंत्र अस्तित्व प्रमाणित है । अतः भ्रामक विवरणों से युक्त राजगच्छ की एकमात्र उपलब्ध पट्टावली की प्रामाणिकता संदिग्ध है।
जैसा कि प्रारम्भ में कहा जा चुका है; राजगच्छ से सम्बद्ध कुछ अभिलेख भी प्राप्त होते है, जो वि० सं० ११२८ से वि० सं० १५१० तक के हैं, तथापि इनकी संख्या अल्प ही हैं। इनका विवरण इस प्रकार है :
१- + (व) त + ११ (२?) ८ फाल्गुन सुदि ९ सोमे आरासणाभिधाने स्थाने तीर्थाधिपस्य वीरस्य प्रतिमा [+] + + + + राज्ये कारिता + + + + + ज रा [ज] गच्छे श्री....
यह लेख न केवल राजगच्छ से सम्बद्ध है, बल्कि उस गच्छ के उपलब्ध लेखों में सबसे प्राचीन भी है।१५
२.-सं. १२०६ श्रीशीलचन्द्रसूरीणां शिष्यैः श्रीचन्द्रसूरिभिः । विमलादिसुसंघेन, युतैस्तीर्थमिदं स्तुत [तं] ॥ १ ॥
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