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राजगच्छ
११८९ चन्द्रप्रभसूरि
प्रभाचन्द्रसूरि [वि० सं० १३३४ । ई० सन् १२७८ में प्रभावकचरित
के रचनाकार] __ जैसा कि पूर्व में हम देख चुके हैं धनेश्वरसूरि (द्वितीय) ने सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणवृत्ति की प्रशस्ति में राजगच्छीयगुर्वावली का प्रारम्भ धनेश्वरसूरि (प्रथम) से और विजयसिंहसूरि, देवप्रभसूरि एवं सिद्धसेनसूरि द्वारा उल्लिखित ग्रन्थप्रशस्तियों में राजगच्छीयगुर्वावली अभयदेवसूरि से प्रारम्भ हुई है । इसके विपरीत माणिक्यचन्द्रसूरि और प्रभाचन्द्रसूरि ने अपने-अपने ग्रन्थप्रशस्तियों में अभयदेवसूरि के गुरु प्रद्युम्नसूरि को राजगच्छ का आदिम आचार्य बतलाया है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार
अभयदेवसूरि ने सन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनीटीका की प्रशस्ति में आचार्य प्रद्युम्नसूरि को अपना गुरु बतलाया है। अभयदेवसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि के समय से ही चन्द्रकुल (चन्द्रगच्छ) की यह शाखा राजगच्छ के नाम से विख्यात हुई । इसी कारण उत्तरकालीन राजगच्छीय ग्रन्थकार आचार्य अभयदेवसूरि और उनके गुरु प्रद्युम्नसूरि को राजगच्छ का आदिम आचार्य मानते हैं।
उपरोक्त ग्रन्थप्रशस्तियों की गुर्वावलियों से यह भी स्पष्ट होता है कि वर्धमानसूरि के समय तक इस गच्छ में कोई शाखा भेद नहीं हुआ था, परन्तु उनके शिष्यों शीलभद्रसूरि और देवभद्रसूरि (प्रथम) से राजगच्छ की अलग-अलग शाखायें अस्तित्व में आयीं । देवप्रभसूरि की परम्परा में
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