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यशोभद्रसूरिगच्छ निर्ग्रन्थ दर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय के अन्तर्गत चन्द्रकुल का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस कुल से समय-समय पर अस्तित्व में आये विभिन्न गच्छों में यशोभद्रसूरिगच्छ भी एक है। यशोभद्रसूरि जिनके नाम पर इस गच्छ का नामकरण हुआ, इसके आदिम आचार्य माने जा सकते
जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, यशोभद्रसूरि के पश्चात् उनकी शिष्य-सन्तति यशोभद्रसूरिगच्छ के नाम से जानी गयी होगी। इस गच्छ से सम्बद्ध मात्र दो साक्ष्य मिलते हैं। उनमें से प्रथम साक्ष्य है सिद्धसेनसूरि (पूर्व नाम साधारण कवि) द्वारा वि० सं० ११२३/ ई० सन् १०६७ में रची गयी विलासवई (विलासवती) नामक कृति की प्रशस्ति । इसके अनुसार वाणिज्यकुल, कोटिकगण और वज्रशाखा के अन्तर्गत चन्द्रकुल प्रसिद्ध हुआ जिसमें अनेक प्रसिद्ध आचार्य और मुनिजन हुए । प्रसिद्ध जैनाचार्य बप्पभट्टिसूरि इसी गच्छ के थे। इनकी परम्परा में आगे चलकर यशोभद्रसूरि नामक आचार्य हुए । उनके नाम पर उनकी शिष्य-सन्तति यशोभद्रसूरिगच्छीय कहलायी । आगे चलकर शांतिसूरि इस गच्छ के नायक बने । मथुरा के आस-पास के क्षेत्रों पर उनका बड़ा प्रभाव था । उनके पट्टधर यशोदेवसूरि हुए । इन्हीं के शिष्य सिद्धसेनसूरि अपरनाम साधारणकवि ने वि० सं० ११२३ में अपभ्रंश भाषा में विलासवइ नामक कृति की रचना की । इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि कवि ने गोपगिरि (वर्तमान ग्वालियर) के निवासी भिल्लमालकुल के साहु लक्ष्मीधर की प्रार्थना पर उक्त कृति की रचना की । प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने यद्यपि
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