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मडाहडागच्छ
११६९ सम्बन्ध होने के कारण इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से इसे महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
विक्रम सम्वत् की सत्रहवीं शताब्दी के द्वितीय-तृतीय चरण में इस गच्छ में सारंग नामक एक विद्वान् हुए हैं । जिनके द्वारा रचित कविविल्हणपंचाशिकाचौपाई [रचनाकाल वि० सं० १६३९], मुंजभोजप्रबन्ध [रचनाकाल वि० सं० १६५१], किसनरुक्मिणीवेलि पर संस्कृतटीका [रचनाकाल वि० सं० १६७८] आदि कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इनके गुरु का नाम पद्मसुन्दर और प्रगुरु का नाम ज्ञानसागर था, जो समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर पूर्वप्रदर्शित मडाहडगच्छ के मुनिजनों की नामावली में उल्लिखित १७वें पट्टधर ज्ञानसागरसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं । मडाहडगच्छ से सम्बद्ध अब तक उपलब्ध यह अन्तिम साहित्यिक साक्ष्य कहा जा सकता है।
अभिलेखीय साक्ष्यों से इस गच्छ की रत्नपुरीयशाखा और जाखडियाशाखा का अस्तित्व ज्ञात होत है । इनका विवरण निम्नानुसार
रत्नपुरीयशाखा जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट होता है, रत्नपुर नामक स्थान से यह अस्तित्व में आयी प्रतीत होती है । इस गच्छ से सम्बद्ध १४ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं जो वि० सं० १३५० से वि० सं० १५५७ तक के हैं । इन लेखों में धर्मघोषसूरि, सोमदेवसूरि, धनचन्द्रसूरि, धर्मचन्द्रसूरि, कमलचन्द्रसूरि आदि का उल्लेख मिलता है। इनका विवरण निम्नानुसार है : धर्मघोषसूरि के पट्टधर सोमदेवसूरि
इनके द्वारा वि० सं० १३५० में प्रतिष्ठापित पार्श्वनाथ की धातु की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है . मुनि विद्याविजयजी ने इसकी वाचना की है, जो निम्नानुसार है :
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