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१९६८
जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास लिंबडी के हस्तलिखित जैन ग्रन्थ भंडार में वि० सं० १५१७ में लिखी गयी कल्पसूत्रस्तवक और कालिकाचार्यकथा' की एक-एक प्रति उपलब्ध है जिसे ग्रन्थभण्डार की प्रकाशित सूची में मडाहडागच्छीय रामचन्द्रसूरि की कृति बतलाया गया है । चूँकि उक्त ग्रन्थभण्डार में संरक्षित हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रशस्तियों अभी अप्रकाशित हैं, अतः ग्रन्थकार की गुरु-परम्परा, ग्रन्थ के रचनाकाल आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती।
इसी गच्छ में विक्रम सम्वत् की १५वीं शताब्दी के तृतीयचरण में पद्मसागरसूरि नामक एक विद्वान् मुनि हो चुके हैं, जिनके द्वारा रचित कयवन्नाचौपाइ, स्थूलभद्रअठावीसा आदि कुछ कृतियाँ मिलती हैं। ये मरु-गुर्जर भाषा में रचित हैं । कयवन्नाचौपाई की प्रशस्ति१ में रचनाकार ने अपने गुरु तथा रचनाकाल आदि का उल्लेख किया है -
आदि: सरस वचन आपे सदा, सरसति कवियण माइ, पणमणि कवइन्ना चरी, पभणिसु सुगुरु पसाइ । मम्माडहगच्छे गुणनिलो श्रीमुनिसुन्दरसूरि, पद्मसागरसूरि सीस तसु पभणे आणंदसूरि ।
अन्त: दान उपर कइवन्न चोपइ, संवत् परन त्रिसठे थई, भाद्र वदि अठमी तिथि जाण, सहस किरण दिन आणंद आणि । पद्मसागरसूरि इम भणंत, गुणे तिहिं काज सरंति, ते सवि पामे वांछित सिद्धि, घर नीरोग घरे अविचल रिद्धि ।
यद्यपि उक्त ग्रन्थकार और उनके गुरु का अन्यत्र कोई उल्लेख नहीं मिलता और यह रचना भी सामान्य कोटि की है फिर भी मडाहडगच्छ से
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