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बृहद्गच्छ
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आचार्य जिनदेव के शिष्य हरिभद्रसूरि चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज के समकालीन थे । इनके द्वारा रचित ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि द्रव्यानुयोग, उपदेश, कथाचरितानुयोग आदि विषयों में संस्कृत - प्राकृत भाषा में इनकी खास विद्वता और व्याख्या शक्ति विद्यमान थी । वि० सं० १९७२ / ई० सन् १११६ में इन्होंने तीन ग्रन्थों की रचना की जो इस प्रकार है
बंध स्वामित्व षटशीति कर्म ग्रन्थ के ऊपर वृत्ति; जिनवल्लभसूरि द्वारा रचित आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण पर वृत्ति और श्रेयांसनाथचरित |
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वि० सं० १९८५ / ई० सन् १९२९ के पाटण में यशोनाग श्रेष्ठी के उपाश्रय में रहते हुए इन्होंने प्रशमरतिप्रकरण पर वृत्ति की रचना की । रत्नप्रभसूरि आचार्य वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि विशिष्ट प्रतिभाशाली, तार्किक, कवि और विद्वान् थे । इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार पर ५००० श्लोक प्रमाण रत्नाकरावतारिका नाम की टीका की रचना की है । इसके अलावा इन्होंने उपदेशमाला पर दोघट्टी वृत्ति [ रचनाकाल वि० सं० १२३८ / ई० सन् ११८२]० नेमिनाथचरित [ रचनाकाल वि० सं० १२३३ / ई० सन् ११७६], मतपरीक्षापंचाशत; स्याद्वादूरत्नाकर पर लघु टीका आदि ग्रन्थों की रचना की है ।
हेमचन्द्रसूरि ४० - आप आचार्य अजितदेवसूरि के शिष्य एवं आचार्य मुनिचन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे। इन्होंने नाभेयनेमिकाव्य की रचना की, जिसका संशोधन महाकवि श्रीपाल ने किया । श्रीपाल जयसिंहसिद्धराज के दरबार का प्रमुख कवि था ।
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हरिभद्रसूरि - इनका जन्म और दीक्षादि प्रसंग जयसिंह सिद्धराज के काल में उन्हीं के राज्य प्रदेश में हुआ, ऐसा माना जाता है । १ ये प्रायः अणहिलवाड़ में ही रहा करते थे । सिद्धराज और कुमारपाल के मन्त्री श्रीपाल की प्रार्थना पर इन्होंने संस्कृत - प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में
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