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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इनके ख्यातिनाम शिष्यों में वादिदेवसूरि, मानदेवसूरि और अजितदेवसूरि प्रमुख थे । वि० सं० १९७८ में इनका स्वर्गवास हुआ।
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वादिदेवसूरि - आप मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य थे । आबू से २५ मील दूर मडार नामक ग्राम में वि० सं० ११४३ / ई० सन् १०८६ में इनका जन्म हुआ था । इनके पिता का नाम वारिनाग और माता का नाम जिनदेवी था। आचार्य मुनिचन्द्रसूरि के उपदेश से माता - पिता ने बालक को उन्हें सौंप दिया और उन्होंने वि० सं० १९५२ / ई० सन् १०९६ में इन्हें दीक्षित कर मुनि रामचन्द्र नाम रखा । वि० सं० १९७४ / ई० सन् १९१७ में इन्होंने आचार्य पद प्राप्त किया और देवसूरि नाम से विख्यात हुए । ३४ वि० सं० ११८१-८२ / ई० सन् १९२४ में अणहिलपत्तन स्थित चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज की राजसभा में इन्होंने कर्णाटक से आये दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया और वादिदेवसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। वादविषयक ऐतिहासिक उल्लेख कवि यशश्चन्द्र कृत मुद्रितकुमुदचन्द्र नामक नाटक में प्राप्त होता है । ये गुजरात में प्रमाणशास्त्र के श्रेष्ठ विद्वानों में से थे । इन्होंने प्रमाणशास्त्र पर प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार नामक ग्रन्थ आठ परिच्छेदों में रचा और उसके ऊपर स्याद्वादरत्नाकर नामक मोटी टीका की भी रचना की । इस ग्रन्थ की रचना में आपको अपने शिष्यों भद्रेश्वरसूरि और रत्नप्रभसूरि से सहायता प्राप्त हुई। इसके अलावा इनके द्वारा रचित ग्रन्थ इस प्रकार हैं
मुनिचन्द्रसूरिगुरुस्तुति, मुनिचन्द्रगुरुविरहस्तुति, यतिदिनचर्या, उपधानस्वरूप, प्रभातस्मरण, उपदेशकुलक, संसारोदिग्नमनोरथकुलक, कलिकुंडपार्श्वस्तवनम् आदि ।
हरिभद्रसूरि २८ - बृहद्गच्छीय आचार्य मानदेव के प्रशिष्य एवं
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