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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास परमानन्दसूरि के गुरु का नाम चक्रेश्वरसूरि और दादागुरु का नाम वर्धमानसूरि उल्लिखित है। इसी प्रकार वडगच्छीय चक्रेश्वरसूरि के गुरु
और परमानन्दसूरि के दादागुरु वर्धमानसूरि और अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि को अभिन्न माना जा सकता है। जहाँ तक गच्छ सम्बन्धी समस्या का प्रश्न है, उसका समाधान यह है कि चन्द्रगच्छ और वडगच्छ दोनों का मूल एक होने से इस समय तक आचार्यों में परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं दिखाई देती। गच्छीयप्रतिस्पर्धा के युग में भी एक गच्छ के आचार्य दूसरे गच्छ के आचार्य के शिष्यों को विद्याध्ययन कराना अपारम्परिक नहीं समझते थे। अतः बृहद्गच्छीय चक्रेश्वरसूरि एवं परमानन्दसूरि के गुरु चन्द्रगच्छीय वर्धमानसूरि हों तो यह तथ्य प्रतिकूल नहीं लगता।
इस प्रकार चन्द्रगच्छ और खरतरगच्छ के आचार्यों का जो विद्यावंशवृक्ष बनता है, वह इस प्रकार है:
अब हम वडगच्छीय वंशावली और पूर्वोक्त चन्द्रगच्छीय वंशावली को परस्पर समायोजित करते हैं, उससे जो विद्यावंशवृक्ष निर्मित होता है, वह इस प्रकार है
अब इस तालिका के बृहद्गच्छीय प्रमुख आचार्यों के सम्बन्ध में ज्ञातव्य बातों पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जायेगा।
नेमिचन्द्रसूरि - जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वडगच्छ के उल्लेख वाली प्राचीनतम प्रशस्तियाँ इन्हीं की हैं । इनका समय विक्रम सम्वत् की बारहवीं शती सुनिश्चित है । इनके द्वारा लिखे गये ५ ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो इस प्रकार हैं -
१. आख्यानकमणिकोष [मूल] २. आत्मबोधकुलक ३. उत्तराध्ययनवृत्ति [सुखबोधा] ४. रत्नचूड़कथा ५. महावीरचरियं
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