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________________ ११२२ ३ जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास धर्माण नामक सन्निवेश में न्यग्रोध वृक्ष के नीचे सात ग्रहों के शुभ लग्न को देखकर सर्वदेवसूरि सहित आठ मुनिजनों को आचार्यपद प्रदान किया । सर्वदेवसूरि वडगच्छ के प्रथम आचार्य हुये । तत्पश्चात् तपागच्छीय मुनिसुन्दरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली' (रचनाकाल वि० सं० १४६६ /० सन् १४९०), हरिविजयसूरि के शिष्य धर्मसागरसूरि द्वारा रचित तपागच्छपट्टावली [ रचनाकाल वि० सं० १६४८/ई० सन् १५९१] बृहद्गच्छीय भावरत्नसूरि के शिष्य पुण्यरत्न द्वारा वि० सं० १६२० में रचित बृहद्गच्छगुर्वावली और मुनिमाल द्वारा रचित बृहद्गच्छगुर्वावली* [ रचनाकाल वि० सं० १७५१ / ई० सन् १६९४]; के अनुसार " वि० सं० ९९४ में अर्बुदगिरि के तलहटी में टेली नामक ग्राम में स्थित वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि सहित आठ मुनियों को आचार्य पद प्रदान किया गया । इस प्रकार निर्ग्रन्थ श्वेताम्बर संघ में एक नये गच्छ का उदय हुआ जो वटवृक्ष के नाम को लेकर वटगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।" चूंकि वटवृक्ष के शाखाओं - प्रशाखाओं के समान इस गच्छ की भी अनेक शाखायें - प्रशाखायें हुईं, अतः इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ा । गच्छ निर्देश सम्बन्धी धर्माण सन्निवेश के सम्बन्ध में दो दलीलें पेश की जा सकती है प्रथम यह कि उक्त मत एक स्वगच्छीय आचार्य द्वारा उल्लिखित है और दूसरे १५वीं शताब्दी के तपागच्छीय साक्ष्यों से लगभग दो शताब्दी प्राचीन भी है अतः उक्त मत को विशेष प्रामाणिक माना जा सकता है । जहाँ तक धर्माण सन्निवेश का प्रश्न है आबू के निकट उक्त नाम का तो नहीं बल्कि वरमाण नामक स्थान है, जो उस समय भी जैन तीर्थ के रूप में मान्य रहा। अतः यह कहा जा सकता है कि लिपि-दोष से वरमाण की जगह धर्माण हो जाना असंभव नहीं । सबसे पहले हम वडगच्छीय आचार्यों की गुर्वावली को, जो ग्रन्थ प्रशस्तियों, पट्टावलियों एवं अभिलेखों से प्राप्त होती है, इकत्र कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003615
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages698
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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