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बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास सातवीं शताब्दी में प्रश्चिम भारत में निर्ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो चैत्यवास की नींव पड़ी वह आगे की शताब्दियों में उत्तरोत्तर दृढ होती गयी और परिणामस्वरूप अनेक आचार्य एवं मुनि शिथिलाचारी हो गये। इनमें से कुछ ऐसे भी आचार्य थे जो चैत्यवास के विरोधी और सुविहितमार्ग के अनुयायी थे। चौलुक्य नरेश दुर्लभराज [वि० सं० १०६७-७८/ई० सन् १०१०-२२] की राजसभा में चैत्यवासियों और सुविहितमार्गियों के मध्य जो शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें सुविहितमार्गियों की विजय हुई । इन सुविहितमार्गियों में बृहद्गच्छ के आचार्य भी थे।
बृहद्गच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये भी हमारे पास दोनों प्रकार के साक्ष्य हैं - .. १. साहित्यिक २. अभिलेखिक
साहित्यिक साक्ष्यों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है, प्रथम तो ग्रन्थों एवं पुस्तकों की प्रशस्तियाँ और द्वितीय गच्छों की पट्टावलियाँ, गुर्वावलियाँ आदि।
यहां उक्त सक्ष्यों के आधार पर बृहद्गच्छ के इतिहास पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
वडगच्छ /बृहद्गच्छ के उल्लेख वाली प्राचीनतम प्रशस्तियाँ १२वीं शताब्दी के मध्य की हैं । इस गच्छ के उत्पत्ति के विषय में चर्चा करने वाली सर्वप्रथम प्रशस्ति वि० सं० १२३८/ई० सन् ११८२ में बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति की है, जिसके अनुसार आचार्य उद्योतनसूरि ने आबू की तलहटी में स्थित
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