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पूर्णिमागच्छ ढंढेरिया शाखा वि० सं० १६५४ माघ वदि १ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग १,
रविवार लेखांक १०१ महिमाप्रभसूरि
इनकी प्रेरणा से प्रतिष्ठित वि०सं० १७६८ की एक प्रतिमा मिली है : वि० सं० १७६८ वैशाख सुदि६ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग १,
गुरुवार लेखांक ३३२ __ उक्त अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा पूर्णिमापक्ष की प्रधानशाखा के जिन मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं, उनमें जयप्रभसूरि के शिष्य जयभद्रसूरि को छोड़कर शेष सभी नाम पुस्तकप्रशस्तियों में भी मिलते हैं साथ ही उनका पूर्वापर सम्बन्ध भी सुनिश्चित किया जा चुका है।
श्री देसाई द्वारा दी गयी पूर्णिमापक्ष-प्रधानशाखा की पट्टावली में सर्वप्रथम पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक चन्द्रप्रभसूरि का उल्लेख है । इसके बाद धर्मघोषसूरि एवं उनके बाद समुद्रघोषसूरि का नाम आता है । उक्त पट्टावली के अनुसार समुद्रघोषसूरि के शिष्य सुरप्रभसूरि से पूर्णिमागच्छ की प्रधानशाखा का आविर्भाव हुआ। वि० सं० १२५२ में पूर्णिमागच्छीय मुनिरत्नसूरि द्वारा रचित अममस्वामिचरित्रमहाकाव्य' की प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपने गुरुभ्राता सुरप्रभसूरि का उल्लेख किया है । पट्टावली में सुरप्रभसूरि के बाद जिनेश्वरसूरि, भद्रप्रभसूरि, पुरुषोत्तमसूरि, देवतिलकसूरि, रत्नप्रभसूरि, तिलकप्रभसूरि, ललितप्रभसूरि, हरिप्रभसूरि आदि ८ आचार्यों का पट्टानुक्रम से जो उल्लेख है, उनके बारे में अन्यत्र कोई सूचना नहीं मिलती । हरिप्रभसूरि के शिष्य जयसिंहसूरि का अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लेख मिलता है । चूंकि भुवनप्रभसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें वि० सं० १५१२ से वि० सं० १५३१ तक की हैं अतः उनके गुरु जयसिंहसूरि का समय वि० सं० १५०० के आस-पास माना जा सकता है। चूंकि इस शाखा के प्रवर्तक सुरप्रभसूरि के गुरुभ्राता मुनिरत्नसूरि का समय वि० सं० की
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