________________
६९८
जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास पढ़ा गया पाठ कानेन्द्रकुल) का उल्लेख मिलता है ।२३ ओसियां से प्राप्त वि० सं० १०८८/ ई० सन् १०३२ के एक प्रतिमालेख में सर्वप्रथम नागेन्द्रकुल के स्थान पर नागेन्द्रगच्छ का नाम मिलता है। इस लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य वासुदेवसूरि को नागेन्द्रगच्छीय बतलाया गया है। महावीर जिनालय, जूनागढ़ से प्राप्त अम्बिका की एक प्रतिमा (वि० सं० १०४२/ ई० स० १०३६) पर भी इस कुल का उल्लेख हुआ है। समुद्रसूरि के शिष्य और भुवनसुन्दरीकथा (प्राकृतभाषामय, रचनाकाल शक सं० ९७५/ई० सन् १०५३) के रचनाकार विजयसिंहसूरि भी इसी कुल के थे।२६ ___ महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल के पितृपक्ष के कुलगुरु और प्रसिद्ध आचार्य विजयसेनसूरि भी नागेन्द्रगच्छ के थे। उनके शिष्य उदयप्रभसूरि ने स्वरचित धर्माभ्युदयमहाकाव्य (रचनाकाल वि० सं० १२४० से पूर्व) की प्रशस्ति में अपने गुरु-परम्परा की लम्बी तालिका दी है जिसके अनुसार नागेन्द्रगच्छ में महेन्द्रसूरि नामक एक आचार्य हुए जो आगमों के महान् ज्ञाता और तर्कशास्त्र में पारंगत थे। उनके शिष्य शान्तिसूरि हुए जिन्होंने दिगम्बरों को शास्त्रार्थ में हराया । उनके आनन्दसूरि और अमरचन्द्रसूरि नामक दो शिष्य हुए । चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज (वि० सं० ११५०-११९८/ई० सन् १०९४-११४२) ने उन्हें 'व्याघ्र शिशुक'
और 'सिंह शिशुक' की उपाधि प्रदान की थी क्योंकि उन्होंने बाल्यावस्था में ही प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। अमरचन्द्रसूरि के बारे में कहा जाता है कि इन्होंने सिद्धान्तार्णव की रचना की थी। इनके शिष्य हरिभद्रसूरि हुए जो अपने अमोघ देशना के कारण 'कलिकालगौतम' के नाम से विख्यात थे । हरिभद्रसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि हुए जो महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल के पितृपक्ष के कुलगुरु थे । धर्माभ्युदयमहाकाव्य के रचनाकार उदयप्रभसूरि इन्हीं के शिष्य थे ।२९ वि० सं० १३०२/ ई० सन् १२४६ के एक प्रतिमालेख में विजयसेनसूरि के एक अन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org