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________________ नागेन्द्रगच्छ ___ ६९७ ३. : । सिष्येण मूलवसातो जिनत्रयमकार्य्यत ।। भृगु ४. कच्छे तदीयन पाश्विल्लगणिना वरं । सकसं ५. वत् ।। ४१० ॥ उक्त उत्कीर्ण लेख में तालव्य श के स्थान पर दन्त्य स का प्रयोग हुआ है। इसे कुछ सुधार के साथ आधुनिक पद्धति से निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है° - आसीन्नागेन्द्रकुले लक्ष्मणसूरिनितान्तशान्तमतिः । तद्गच्छे गुरुतरुयन् नाम्नाऽऽसीत् शीलरु(भ) द्रगणिः । शिष्येण मूलवसतौ जिनत्रयमकार्यत। भृगुकच्छे तदीयेन पाश्विल्लगणिना वरम् ॥ शक संवत् ९१० लक्ष्मणसूरि शीलभद्रगणि पाश्विल्लगणि (शक सं० ४१०/ई० सन् ४८८ में त्रितीर्थी जिनप्रतिमा के प्रतिष्ठापक) पार्श्विलगणि के प्रगुरु लक्ष्मणसूरि ई० सन् की १०वीं शताब्दी के द्वितीय चरण में विद्यमान माने जा सकते हैं। ईस्वी सन् की ११वीं शताब्दी से इस कुल के बारे में विस्तृत विवरण प्राप्त होने लगते हैं । इस शताब्दी के पाँच प्रतिमालेखों में इस कुल का नाम मिलता है। वि० सं० १०८६/ ई० सन् १०३०२१ और वि० सं० १०९३/ई० सन् १०३७२२ के दो धातु प्रतिमा लेखों में नागेन्द्रकुल और इससे उद्भूत सिद्धसेनदिवाकरगच्छ का उल्लेख है। राधनपुर से प्राप्त वि० सं० १०४१/ई० सन् १०३५ की धातुप्रतिमा पर भी नागेन्द्रकुल (भ्रमवश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003615
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages698
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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