________________
पूर्णतल्लगच्छ
९१७ शांतिसूरि आदि आचार्य हुए और यह विक्रम सम्वत् की १२ वी शती में अस्तित्व में थी। ___ महामात्य तेजपाल द्वारा वि० सं० १२९८ । ई० सन् १२४२ में शत्रुजय महातीर्थ पर एक पाषाणखंड पर उत्कीर्ण कराये गये शिलालेख में जहां विभिन्न गच्छों के आचार्यों का उल्लेख है, वही राजगुरु हेमसूरि की परम्परा में हुए किन्ही मेरुप्रभसूरि का नाम मिलता है । राजगुरु हेमसूरि यदि कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि से अभिन्न माने जायें तो विक्रम सम्वत् की १३ वीं शती के अन्त तक इस गच्छ का अस्तित्व प्रमाणित होता है। उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ की गुरु-शिष्य परम्परा की एक तालिका इस प्रकार निर्मित की जा सकती है :
द्रष्टव्य : तालिका संख्या - १ पूर्णतल्लगच्छ के प्रमुख आचार्यों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
प्रद्युम्नसूरि - जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है ये यशोभद्रसूरि के शिष्य और पट्टधर थे। इनके द्वारा रचित एकमात्र कृति है मूलशुद्धिप्रकरण अपरनाम स्थानकप्रकरण अपरनाम सिद्धान्तसार जो २५२ गाथाओं में महाराष्ट्रीय प्राकृत में निबद्ध है ।१३ इस ग्रन्थ में सम्यक्त्व के बारे में विवरण प्राप्त होता है। इसकी वि० सं० ११८६ / ई० सन् ११३० में लिखी गयी एक प्रति अहमदाबाद स्थित विमलगच्छीय उपाश्रय में संरक्षित है। जैसलमेर और खंभात" के ग्रन्थ भंडारों से भी इसकी प्रतियां प्राप्त होती हैं। इनके पट्टधर गुणसेनसूरि हुए। ।
देवचन्द्रसूरि - ये उक्त गुणसेनसूरि के शिष्य और पट्टधर थे। इन्होंने अपने प्रगुरु प्रद्युम्नसूरि की कृति मूलशुद्धिप्रकरण पर वि० सं० ११४६/ ईस्वी सन् १०९० में १३००० श्लोक परिमाण वृत्ति की रचना की। इस ग्रन्थ के कुछ कथानकों की गाथायें निर्वृत्तिकुलीन शीलांकसूरि द्वारा रचित चउपन्नमहापुरिसचरिय रचनाकाल वि० सं० ९२५ / ई० सन् ८६९ से अक्षरशः मिलती है, जिसके आधार पर इस ग्रन्थ पर उक्त कृति का प्रभाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org