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________________ ९१६ जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास ____ आचार्य हेमचन्द्र का शिष्य समूह भी उन्हीं के समान प्रतिभाशाली व्यक्तित्व सम्पन्न था। रामचन्द्रसूरि, गुणचन्द्रसूरि, बालचन्द्रसूरि, महेन्द्रसूरि, वर्धमानगणि, देवचन्द्रसूरि आदि उनके सुविख्यात शिष्य थे । इन्होंने हेमचन्द्र की कृतियों पर टीकायें तथा वृत्तियां लिखी हैं; साथ ही इनके द्वारा लिखे गये स्वतंत्र ग्रन्थ भी मिलते हैं। रामचन्द्रसूरि इन सभी शिष्यों में अग्रगण्य थे । इनमें कवि की अलौकिक प्रतिभा और श्रमणत्व का अलौकिक तेज था । इन्हें शतप्रबन्धकर्ता के रूप में जाना जाता है। इन्होंने अपने गुरुभ्राता गुणचन्द्रसूरि के साथ नाट्यदर्पण और द्रव्यालंकार की टीका के साथ रचना की । महेन्द्रसूरि ने अपने गुरु हेमचन्द्रसूरि की कृति अनेकार्थसंग्रहकोश पर अनेकार्थकैरवाकरकौमुदी की रचना की तथा देवचन्द्रसूरि ने चन्द्रलेखाविजयप्रकरण नामक नाटक का प्रणयन किया। किन्ही शांत्याचार्य द्वारा रचित न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, तिलकमंजरीटिप्पण, वृन्दावनकाव्यटिप्पण, घटकर्परकाव्यटिप्पण, मेघाभ्युदयकाव्यटिप्पण, शिवभद्रकाव्यटिप्पण, चन्द्रदूतकाव्यटिप्पण आदि कई कृतियां मिलती हैं । न्यायावतारवार्तिकवृत्ति की प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं को चन्द्रकुल के वर्धमानसूरि का शिष्य बतलाया है तथा तिलकमंजरीटिप्पण की प्रशस्ति में अपने को पूर्णतल्लगच्छीय कहा है। पं० दलसुख मालवणिया ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इनका काल वि० संवत् की ११ वी - १२वीं शती का मध्य निश्चित किया है। चूंकि इन्होंने अपने गुरु के अतिरिक्त अपने गच्छ के किन्ही अन्य मुनि या आचार्य का उल्लेख नहीं किया है, अतः मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति, शांतिनाथचरित, महावीरचरित, उत्पादसिद्धिप्रकरणसटीक आदि की प्रशस्तियों में उल्लिखित पूर्णतल्लगच्छीय मुनिजनों के साथ इनका सम्बन्ध स्थापित कर पाना कठिन है, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि पूर्णतल्लगच्छ की उक्त शाखा के अतिरिक्त एक और शाखा भी विद्यमान थी, जिसमें वर्धमानसूरि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003615
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages698
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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