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पूर्णतल्लगच्छ
९१५ हेमचन्द्राचार्य विरचित सिद्धहेमशब्दानुशासनबृहद्वृत्ति पर दुर्गपदव्याख्या की रचना की । कतिपय विद्वान् इस उदयचन्द्र को हेमचन्द्रसूरि का शिष्य मानते हैं।
जैसा कि पीछे कहा जा चुका है इस मच्छ का उल्लेख करने वाला सबसे प्राचीन साक्ष्य है मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति की प्रशस्ति, जो आचार्य देवचन्द्रसूरि द्वारा वि० सं० ११४६ / ई० स० १०९० में रची गयी है। इसमें टीकाकार ने अपने पूर्ववर्ती ५ पट्टधर आचार्यों का उल्लेख किया है। यदि इसमें से प्रत्येक आचार्य का नायकत्त्वकाल २५ वर्ष माना जाये तो देवचन्द्रसूरि से ५ पीढ़ी पूर्व हुये आचार्य आम्रदेवसूरि का समय वि० सं० १०२५ / ई० सन् ९६९ के आसपास माना जा सकता है। यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इसके प्रारम्भिक आचार्य कौन थे, यद्यपि इस बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिल पाती, फिर भी इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ईस्वी सन् की १० वीं शती के अंतिम चरण में यह गच्छ अस्तित्व में था। देवचन्द्रसूरि के समय इस गच्छ को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इस समय उदयन जैसे उच्चशासनाधिकारी इस गच्छ के अनुयायी थे। आचार्य देवचन्द्रसूरि के शिष्य एवं पट्टधर हेमचन्द्राचार्य की असाधारण प्रतिभा से गुर्जरभूमि में एक नई स्फूति उत्पन्न हुई, जिससे न केवल पूर्णतल्लगच्छ बल्कि समग्र श्वेताम्बर परम्परा अपनी लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर पहुंच गयी। आचार्य हेमचन्द्र सदैव नई सूझ-बूझ से कार्य लेते थे और सभी पर अपनी तलस्पर्शी मेघा का एक चमत्कारिक प्रभाव छोड़ देते थे। संभवतः उनकी चेतना की इसी विलक्षणता ने ही महापराक्रमी गुर्जरेश्वर जयसिंह सिद्धराज को आकृष्ट किया था। सिद्धराज एक महान् शासक और प्रजा के संरक्षक के रूप में सम्मानीय थे तो हेमचन्द्र धार्मिक, चारित्रिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे। आचार्य हेमचन्द्र का कुमारपाल के साथ गुरु-शिष्य का सम्बन्ध था । उसकी राजनैतिक सफलता, सामाजिक नवसुधार की योजना आदि के पीछे आचार्य का व्यक्तित्व, उनकी प्रेरणा एवं उनका वरदहस्त था।
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