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नागपुरीयतपागच्छ
६८७ तथा रचनाकाल का उल्लेख करना जितना महत्त्वपूर्ण है, वहीं उनके द्वारा अपने गच्छ का निर्देश न करता उतना ही आश्चर्यजनक भी है।
कर्परप्रकर नामक कृति की प्रशस्ति१६ में रचनाकार हरिषेण ने स्वयं को वज्रसेन का शिष्य और नेमिनाथचरित्र का कर्ता बतलाया है, किन्तु इन्होंने न तो कृति के रचनाकाल का कोई निर्देश किया है और न ही अपने गच्छ आदि का। ऊपर सिरिवालचरिय (रचनाकाल वि० सं० १४२८/ई० स० १३७२) प्रशस्ति में हेमतिलकसूरि के गुरु का नाम वज्रसेनसूरि आ चुका है, अतः नामसाम्य के आधार पर उक्त दोनों प्रशस्तियों में उल्लिखित वज्रसेनसूरि के एक ही व्यक्ति होने की संभावना व्यक्त की जा सकती है। इस संभावना के आधार पर कर्पूरप्रकर, नेमिनाथचरित्र आदि के रचनाकार हरिषेण और सिरिवालचरिय तथा अन्य कई कृतियों के कर्ता रत्नशेखरसूरि के गुरु परस्पर गुरुभ्राता माने जा सकते हैं। ।
सारस्वतव्याकरणदीपिका की प्रशस्ति में ऊपर हम देख चुके हैं वज्रसेनसूरि के गुरु का नाम जयशेखरसूरि और प्रगुरु का नाम गुणसमुद्रसूरि तथा उनके गुरु का नाम प्रसन्नचन्द्रसूरि बतलाया गया है जो इस परम्परा के आदिपुरुष पद्मप्रभसूरि के शिष्य थे। छन्दकोश पर रची गयी वृत्ति की प्रशस्ति में रचनाकार चन्द्रकीर्ति ने पद्मप्रभसूरि को दीपकशास्त्र का रचनाकार बतलाया है :
वर्षेः चतुःसप्ततियुक्तरुद्रशतै- ११७४-रतीतैरथ विक्रमार्कात् । वादीन्द्रमुख्यो गुरु देवसूरिः सूरीश्चतुर्विंशतिमभ्यर्षिचत् ।। तेषां च यो दीपकशास्त्रकर्ता पद्मप्रभः सूरिवरो वभूव । यदिय शाखा प्रथिता क्रमेण ख्याता क्षितौ नागपुरी तपेति ।।
ठीक यही बात विक्रम सम्वत् की १८ वीं शती के अंतिम चरण के आस-पास रची गयी नागपुरीयतपागच्छ की पट्टावली में भी कही गयी है, किन्तु वहां ग्रन्थ का नाम भुवनदीपक बतलाया गया है। इसी गच्छ की
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