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________________ चैत्रपुर (वर्तमान चितौड़) से अस्तित्व में आये चैत्रगच्छ के उपाध्याय देवचन्द्र के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि के आघाटपुर में उग्रतप करने से प्रभावित हो कर वहाँ के शासक जैत्रसिंह ने वि.सं. १२८५ में उन्हें 'तपा' विरुद् से सम्मानित किया । इस घटना के आधार पर उनकी शिष्यसंतति तपागच्छीय कहलायी । अनेक शाखाओं में विभक्त यह गच्छ आज भी संख्या की दृष्टि से श्वेताम्बर श्रमण परम्परा में सबसे बड़ा और प्रभावशाली रूप में विद्यमान है । ___ इसी प्रकार बृहद्गच्छीय आचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि.सं. ११६८ में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसके पालन के कारण विधिपक्ष अस्तित्व में आया । घटना विशेष के कारण इसका नाम अंचलगच्छ और अचलगच्छ भी प्रचलित हुआ । वर्तमान में यह गच्छ अचलगच्छ के नाम से जाना जाता है। आज खरतरगच्छ, अचलगच्छ, तपागच्छ और पार्श्वचन्द्रगच्छ (तपागच्छ के ही अंतर्गत) को छोड़कर सभी गच्छ नामशेष हो चुके हैं। इन में से पार्श्वचन्द्रगच्छ को छोड़कर प्रथम तीन गच्छों का विस्तृत इतिहास स्वतंत्र पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुका है । अत: उनके सम्बन्ध में इस पुस्तक में कोई चर्चा नहीं की गयी है। इस पुस्तक में जिन गच्छों का वर्णक्रमानुसार संक्षिप्त इतिहास दिया गया है वे प्रायः देश की विभिन्न शोधपत्रिकाओं 'श्रमण'-वाराणसी, 'तुलसीप्रज्ञा'-लाडनूं'शोधादर्श'-लखनऊ; 'सामीप्य'-अहमदाबाद; 'संस्कृतिसन्धान'-वाराणसी; 'कलासरोवर'-वाराणसी, 'तित्थयर'-कलकत्ता आदि के विभिन्न अंकों में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण सामग्री अत्यन्त बिखरी हुई थी। आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरिजी महाराज की महती कृपा से इस सम्पूर्ण सामग्री का एक पुस्तक के रूप में प्रकाशन संभव हो सका । अब से लगभग ५० वर्ष पूर्व अगरचन्दजी नाहटा एवं भंवरलालजी नाहटा ने यतीन्द्रसूरी अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित "श्वेताम्बर श्रमणों के गच्छों का संक्षिप्त इतिहास" नामक अपने लेख में विद्वानों से इस महत्त्वपूर्ण विषय पर शोधकार्य करने का आह्वान किया था साथ ही यह शंका भी प्रकट की थी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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