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________________ आये विभिन्न गच्छों का ही इतिहास है । इन में चन्द्रकुल और उससे निष्पन्न विभिन्न गच्छों का प्राधान्य रहा । वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में जो भी गच्छ प्रवर्तमान हैं वे सभी स्वयं को चन्द्रकुलीन ही कहते हैं । श्वेताम्बर श्रमणसंघ विभिन्न कारणों से समय-समय पर विभिन्न गच्छों में विभाजित होता रहा है। अनेक गच्छों का नामकरण विभिन्न नगरों अथवा ग्रामों के आधार पर हुआ, जैसे कोरटा से कोरंटगच्छ, चैत्रपुर (चित्तौड़) से चैत्रगच्छ, खंडाला से खंडिलगच्छ, काशहद से काशहदगच्छ, अडालजा से अडालजीयगच्छ, नागपुर (नागौर) से नागपुरीतपागच्छ, वरमाण से ब्रह्माणगच्छ, वायड से वायडीयगच्छ, सांडेराव से संडेरगच्छ, हर्षपुर (हरसोर) से हर्षपुरीयगच्छ आदि । इसी प्रकार घटना विशेष से भी विभिन्न गच्छ अस्तित्व में आये और उनका नामकरण भी उसी आधार पर हुआ, जैसे आचार्य सर्वदेवसूरि द्वारा आबू पर्वत के तलहटी में अपने आठ शिष्यों को वट वृक्ष के नीचे एक साथ आचार्य पद प्रदान करने के कारण उनका शिष्य समुदाय वटगच्छीय कहलाया । चूंकि वटगच्छ से वटवृक्ष के समय अनेक शाखायें-प्रशाखायें अस्तित्व में आयीं इसी लिये इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी प्रचलित हो गया । इसी गच्छ के आचार्य चन्द्रप्रभसूरि द्वारा वि०सं० ११५६ में पाक्षिकपर्व पूर्णिमा को मनायी जाये या चतुर्दशी को; इस प्रश्न पर पूर्णिमा का पक्ष ग्रहण करने के कारण उनकी शिष्य संतति पूर्णिमापक्षीय या पूर्णिमगच्छीय कहलायी । इसी प्रकार बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के एक शिष्य पद्मप्रभसूरि द्वारा नागपुर (वर्तमान नागौर) में उग्रतप करने के कारण वहां के शासक द्वारा उन्हें 'तपा' विरुद् प्राप्त हुआ, इस आधार पर उनकी शिष्यसंतति नागपुरीय-तपागच्छीय कहलायी । इसी गच्छ में विक्रम की १६वीं शती में पार्श्वचन्द्रसूरि नामक एक प्रभावक आचार्य हुए अतः उनकी शिष्यसंतति पार्श्वचन्द्रगच्छीय कहलायी । यह गच्छ आज भी प्रवर्तमान है । इसी प्रकार सुविहितमार्गीय आचार्य वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि द्वारा चौलुक्यनरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर सुविहितमार्ग का प्रबल समर्थन किया । इस आधार पर उनकी शिष्यसंतति सुविहितमार्गीय कहलायी जो बाद में खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुई और आज भी प्रवर्तमान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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