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दो शब्द
विश्व के सभी धर्म समय-समय पर विभिन्न शाखाओं उपशाखाओं में विभाजित होते रहे हैं । जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं है । इसके दोनों प्रमुख सम्प्रदाय - श्वेताम्बर और दिगम्बर भी विभिन्न उपसम्प्रदायों में विभक्त हैं। मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक विभाग दोनों ही सम्प्रदायों में विद्यमान हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में १६वीं शताब्दी में लोंकाशाह द्वारा मूर्तिपूजा विरोधी उपदेश प्रारंभ हुआ जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय की स्थापना हुई । इसी सम्प्रदाय में १८वीं शताब्दी में आचार्य भिक्षु द्वारा तेरापंथ की स्थापना की गयी । दिगम्बर परम्परा में भी १९वीं शताब्दी में तारणस्वामी द्वारा मूर्तिपूजा विरोधी पंथ की स्थापना की गयी जो तारणपंथ के नाम से प्रसिद्ध है ।
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय ईस्वीसन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में विभिन्न गण - कुल और शाखाओं में विभक्त रहा । कल्पसूत्र की 'स्थविरावली' में इसका विस्तृत विवरण पाया जाता है । इस में से अधिकांश का उल्लेख मथुरा के कंकालीटीला के उत्खनन से प्राप्त विभिन्न पुरावशेषों पर उत्कीर्ण अभिलेखीय साक्ष्यों में भी पाया जाता है, अतः इसकी प्रामाणिकता सिद्ध होती है । साहित्य और पुरातत्त्व का यह मेल अपने आप में अद्वितीय है ।
कल्पसूत्र 'स्थविरावली' में उल्लिखित कोटिक गण, नाइली शाखा और विद्याधरी शाखा को छोड़कर शेष गण-कुल और शाखाओं का आगे की शताब्दियों में कोई भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता । नाइलीशाखा और विद्याधरी शाखा आकोटा से प्राप्त ईस्वीसन् की छठी शताब्दी और उसके बाद की शताब्दियों के पुरावलेखों में नाइलकुल और विद्याधर कुल के रूप में दिखाई देते हैं । ईस्वीसन् की ६ठी शताब्दी में ही दो नये कुलों चन्द्र और निवृत्ति का भी उल्लेख आकोटा से प्राप्त होता है । चूंकि कल्पसूत्र 'स्थविरावली' में इनका उल्लेख नहीं है अतः यह सुनिश्चित है कि ये कुल बाद में अस्तित्व में आये । आठवीं दसवीं शताब्दी से श्वेताम्बर श्रमणसंघ का इतिहास इन्हीं चार कुलों और उनसे अस्तित्व में
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