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कि जैन धर्म में इतिहास पर शोध कार्य करने वालों की संख्या नगण्य होने से शायद ही कोई इस कार्य को आगे बढाये । लगभग आधी शताब्दी बीत जाने पर भी इस दिशा में कोई कार्य न हो सका, यह आश्चर्य का विषय है ।
प्रो० एम० ए० ढांकी के निर्देशन में मैंने उन्हीं के सुझाव पर यह कार्य प्रारंभ किया । उन्होंने अपना अमूल्य समय निकाल कर इस में मुझे हर प्रकार का सहयोग दिया । इसी प्रकार महोपाध्याय विनयसागरजी - जयपुर और प्रो० सागरमलजी, वाराणसी ( अब शाजापुर - मध्यप्रदेश ) द्वारा समय-समय पर अमूल्य सहयोग और सुझाव प्रदान किया गया । इन सभी विद्वानों द्वारा प्राप्त सहयोग के लिये उनके प्रति आभार प्रकट करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं ।
स्व. प्रो० जगदीश नारायण तिवारी, प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, प्रो० विनोदचन्द्र श्रीवास्तव, प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं पूर्व निर्देशक, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला द्वारा समय-समय पर विभिन्न मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त होता रहा, जिसके लिये लेखक उनका हृदय से आभारी है । महोपाध्याय विनयसागरजी ने प्रस्तुत कृति का प्राक्कथन लिखने की महती कृपा की है । जिसके लिये लेखक उसका सदैव ऋणी रहेगा ।
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इस पुस्तक में जो भी अच्छाइयां हैं, उसका सम्पूर्ण श्रेय इन विद्वानों को ही है और जो भी त्रुटियां हैं, वे मेरी हैं । अन्त में मैं उन सभी विद्वानों के प्रति हृदय से आभार प्रकट करता हूँ, जिनकी कृतियों से मुझे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहायता प्राप्त हुई है ।
चैत्र सुदि नवमी, बुधवार वि०सं० २०६६
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- शिवप्रसाद
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