SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय यदि मतभेद था, तो किस प्रकार का था ? इन बातों की जानकारी हेतु हमारे पास कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । __ निर्ग्रन्थ श्रमण संघ के जो श्रमण दक्षिण में चले गये थे, वे भी कालान्तर में गणों एवं अन्वयों में विभाजित हुए । यह परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय के रूप में जानी गयी। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में लगभग दूसरी शती में वस्त्र के प्रश्न को लेकर संघ भेद हुआ और एक नवीन परम्परा का उद्भव हुआ जो आगे चलकर बोटिक या यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई । पीछे से जो संघभेद हुए उनके मूल में सैद्धान्तिक विधि-विधान सम्बन्धी भेद अवश्य विद्यमान रहे, किन्तु यहाँ इन सब की चर्चा न करते हुए मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समय-समय पर उत्पन्न एवं विकसित हुए विभिन्न गच्छों की चर्चा प्रस्तुत की गयी है। उत्तर और पश्चिम भारत का श्वेताम्बर संघ प्रारम्भ में तो वारणगण, मानवगण, उत्तरवल्लिसहगण आदि अनेक गणों और उनकी कुल-शाखाओं में विभक्त था, किन्तु कालान्तर में कोटिक गण को छोड़कर शेष सभी कुल और शाखायें समाप्त हो गयीं । आज के श्वेताम्बर मुनिजन स्वयं को इसी कोटिकगण से सम्बद्ध मानते हैं । इस गण से भी अनेक शाखायें अस्तित्व में आयीं । उनमें उच्चनागरी, विद्याधरी, वज्री, माध्यमिका, नागिल, पद्मा, जयंती आदि शाखायें प्रमुख रूप से प्रचलित रहीं । इन्हीं से आगे चलकर नागेन्द्र और विद्याधर ये दो कुल अस्तित्व में आये । ६ठीं शताब्दी के पश्चात् कोटिक गण से ही निवृत्ति और चन्द्र ये दो कुल भी अस्तित्व में आये । पूर्व मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों का इन्हीं से प्रादुर्भाव हुआ । ___ ईस्वी सन् की छठी-सातवीं शताब्दी से ही श्वेताम्बर श्रमण परम्परा को पश्चिमी भारत (गुजरात और राजस्थान) में राज्याश्रय प्राप्त होने से इसका विशेष प्रचार-प्रसार हुआ, फलस्वरूप वहाँ अनेक नये-नये जिनालयों का निर्माण होने लगा । जैन मुनि भी अब वनों को छोड़कर जिनालयों के साथ संलग्न भवनों (चैत्यालयों) में निवास करने लगे । स्थिरवास एवं जिनालयों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy