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________________ २८ जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास का स्वामित्व प्राप्त होने के फलस्वरूप इन श्रमणों में अन्य दोषों के साथसाथ परस्पर विद्वेष एवं अहंभाव का भी अंकुरण हुआ । इनमें अपने-अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करने की होड़ सी लगी हुई थी । इन्हीं परिस्थितियों में श्वेताम्बर श्रमणसंघ विभिन्न नगरों, जातियों, घटनाविशेष तथा आचार्यविशेष के आधार पर विभाजित होने लगा। विभाजन की यह प्रक्रिया दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में तेजी से प्रारम्भ हुई, जिसका क्रम आगे भी जारी रहा। श्वेताम्बर श्रमणों का ऐसा भी वर्ग था जो श्रमणावस्था में सुविधावाद के पनपने से उत्पन्न शिथिलाचार का कट्टर विरोधी था । आठवीं शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र ने अपने समय के चैत्यवासी श्रमणों के शिथिलाचार का अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में विस्तृत वर्णन किया है और इनके विरुद्ध अपनी आवाज उठायी है । चैत्यवासियों पर इस विरोध का प्रतिकूल असर पड़ा और उन्होंने सुविहितमार्गीय श्रमणों का तरह-तरह से विरोध करना प्रारम्भ किया । गुर्जर प्रदेश में तो उन्होंने चावड़ावंशीय शासक वनराज चावड़ा से राजाज्ञा जारी कर सुविहितमार्गियों का प्रवेश ही निषिद्ध करा दिया । फिर भी सुविहितमार्गीय श्रमण शिथिलाचारी श्रमणों के आगे नहीं झुके और उन्होंने चैत्यवास का विरोध जारी रखा । अन्ततः चौलुक्य नरेश दुर्लभराज (वि०सं० १०६६-१०८२) की राजसभा में चन्द्रकुलीन वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरभूमि में सुविहितमागियों के विहार और प्रवास को निष्कंटक बना दिया । ___ कालदोष से सुविहितमार्गीयश्रमण भी परस्पर मतभेद के शिकार होकर समय-समय पर बिखरते रहे, फलस्वरूप नये-नये गच्छ (समुदाय) अस्तित्व में आते रहे । जैसे चन्द्रकुल की एक शाखा वडगच्छ से पूर्णिमागच्छ, सार्धपूर्णिमागच्छ, सत्यपुरीयशाखा आदि अनेक शाखायें-उपशाखायें अस्तित्व में आयीं । इसी प्रकार खरतरगच्छ से भी कई उपशाखाओं का उदय हुआ। ___ जैसा कि प्रारम्भ में कहा जा चुका है एक स्थान पर स्थायी रूप से रहने की प्रवृत्ति से मुनियों एवं श्रावकों के मध्य स्थायी सम्पर्क बना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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