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अध्याय-३ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय
विश्व के सभी धर्म एवं सम्प्रदाय अपने उद्भव के पश्चात् कालान्तर में अनेक शाखाओं-उपशाखाओं आदि में विभाजित होते रहे हैं । जैन धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। यह विभाजन अनेक कारणों से होता रहा है और इनमें सबसे प्रधान कारण रहा है - देश और काल की परिवर्तनशील परिस्थितियाँ एवं परिवेश । इन्हीं के फलस्वरूप परम्परागत प्राचीन विधिविधानों के स्थान पर नवीन विधि-विधानों और मान्यताओं को प्रश्रय देने से मूल परम्परा में विभेद उत्पन्न हो जाता है। कभी-कभी यह मतभेद वैयक्तिक अहं की पुष्टि और नेतृत्व के प्रश्न को लेकर भी होता है, फलतः एक नई शाखा अस्तित्व में आ जाती है । पुनः इन्हीं कारणों से उसमें भी भेद होता है और नई-नई उपशाखाओं का उदय होता रहता है।
निर्ग्रन्थ श्रमण संघ में भगवान् महावीर के समय में ही गोशालक एवं जमालि ने संघभेद के प्रयास किये, परन्तु गोशालक आजीवक संघ में सम्मिलित हो गया और जमालि की शिष्य-परम्परा आगे नहीं चल सकी ।
वीरनिर्वाण के बाद की शताब्दियों में निर्ग्रन्थ श्रमण संघ विभिन्न गण, शाखा, कुल और अन्वयों में विभक्त होता गया । जैसा कि पिछले अध्याय में कहा जा चुका है कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में वीरनिर्वाण संवत् ९८० अर्थात् विक्रम संवत् की ५वीं-६ठीं शताब्दी तक उत्तर भारत की जैन परम्परा में कौन-कौन से जैन आचार्यों से कौन-कौन से गण, कुल और शाखाओं का जन्म हुआ, इसका सुविस्तृत विवरण संकलित है। ये सभी गण, कुल और शाखायें गुरु-परम्परा विशेष से ही सम्बद्ध रही हैं । इनके धार्मिक विधि-विधानों में किसी प्रकार का मतभेद था या नहीं,
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