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________________ माह । श्वेताम्बर श्रमण संघ का प्रारम्भिक स्वरूप ___ कल्पसूत्र की ‘स्थविरावली' में उल्लिखित उक्त शाखाओं के आधार पर यह स्पष्ट निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईस्वी पूर्व की तीसरी शताब्दी तक जैनधर्म भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसारित हो चुका था । बृहत्कल्पसूत्र भाष्य में जैन श्रमणों के विहार की भौगौलिक सीमा निर्धारित की गयी है, जिसके अनुसार उन्हें पूर्व में अंग-मगध, दक्षिण में कौशाम्बी, उत्तर में कुणाला और पश्चिम में थूणा तक ही विहार की अनुमति थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि उक्त ग्रन्थ का यह कथन कल्पसूत्र-'स्थविरावली' में उल्लिखित विभिन्न गण-कुल-शाखाओं के उत्पन्न होने के पूर्व ही रचा जा चुका था । यद्यपि बृहत्कल्पसूत्र बहुत प्राचीन ग्रन्थ नहीं माना जाता है, तथापि उक्त तथ्यों का इस ग्रन्थ में उल्लेख होने से यह कहा जा सकता है कि इसमें सुरक्षित उक्त कथन काफी प्राचीन है। __ स्थविरावलीगत विभिन्न गण-कुल-शाखाओं का नाम मथुरा से प्राप्त अभिलेखीय साक्ष्यों में भी प्राप्त होता हैं । उनके अध्ययन से विद्वानों ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे इस प्रकार हैं : १. कोटिकगण सबसे अधिक लोकप्रिय रहा है और आज भी यह बहुत अंशों में विद्यमान है । खरतरगच्छ में आज भी दीक्षा के समय कोटिक गण, चन्द्रकुल और वज्रशाखा का नाम उच्चारित किया जाता है । २. कुछ गणों का नामकरण उनके प्रवर्तकों के नाम पर पड़ा, जैसे गोडासगण, उत्तरबल्लिसहगण आदि । ३. कुछ शाखाओं का नामकरण व्यक्तिगत और स्थलों के नाम पर भी हुआ, जैसे इसिपालिय, सावत्थिया, कौशाम्बिका आदि । ४. जैन श्रमणों के विभिन्न गण-कुल-शाखा-सम्भोग आदि में विभाजन की प्राचीनता ईस्वी पूर्व की तीसरी शताब्दी तक जाती है। यह भी संभावना व्यक्त की जा सकती है कि यह विभाजन और भी पहले से चला आ रहा होगा। ५. कल्पसूत्र 'स्थविरावली' में किन्ही सम्भोगों का उल्लेख नहीं मिलता। जबकि मथुरा के अभिलेखों में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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