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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास यहां से इस गण की मुद्रायें बडी संख्या में प्राप्त हुई हैं । ये मुद्रायें ईस्वी पूर्व की शताब्दियों की हैं, जिनके आधार पर यह विश्वास किया जाता है कि २५० ई० पू० के आस-पास यह शाखा अस्तित्व में आ चुकी थी और इस समय इस क्षेत्र में जैन धर्म अच्छी तरह से प्रसारित हो चुका था।
आर्य भद्रयश से ईस्वी पूर्व तृतीय शती के मध्य में अस्तित्व में आयी विभिन्न शाखाओं में दो शाखायें भद्रार्जिका और काकन्दिका इन्ही नामवाले नगरों से निःश्रृत हुई थीं । जैन साहित्य में इन नगरियों के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण प्राप्त होते हैं। __ सुहस्ति के शिष्य कामद्धि द्वारा स्थापित विभिन्न शाखाओं में श्रावस्ति - का शाखा श्रावस्ती से अस्तित्व में आयी थी। अपने जीवनकाल में महावीर का यहां कई बार आगमन हुआ था । गोशाल और जामालि ने भी यहां अपने धर्म का प्रचार किया था।
सुहस्ति के शिष्य ऋषिगुप्त द्वारा स्थापित विभिन्न शाखाओं में सौराष्ट्रिका शाखा का स्थान महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है । इस शाखा के नामकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी में गुर्जर प्रान्त में न केवल जैन धर्म का प्रचार हो चुका था,६ बल्कि वहां उस समय विकसित दशा में विद्यमान रहा और उसी स्थिति में वहां आज भी विद्यमान है।
कोटिक गण की मध्यमिका शाखा को राजस्थान के प्रसिद्ध मध्यमिका नगरी से सम्बद्ध माना जाता है । जैन साहित्य में इस नगरी का विवरण प्राप्त होता है । ईस्वी पूर्व की तीसरी शताब्दी में इस शाखा के अस्तित्व में आने से यह स्पष्ट होता है कि इस समय के पूर्व ही इस क्षेत्र में जैन धर्म का प्रवेश हो चुका था।
कोटिक गण की उच्चैर्नागर शाखा को बुहलर और मुनि कल्याणविजयजी ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश में स्थित बुलन्दशहर से प्रायः नामसाम्य के आधार पर समीकृत किया है। प्रो. सागरमल जैन ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर उक्त शाखा को मध्यप्रदेश के सतना जिले में अवस्थित ऊंचेहरा नामक स्थान से समीकृत किया है, जो सत्य प्रतीत होता है।
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