SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास ६. मथुरा के अभिलेखों और कल्पसूत्र 'स्थविरावली' में किसी भी गच्छ का नाम नहीं मिलता है । कोटिकगण और उसकी शाखाओं का बाद की शताब्दियों में भी प्रचारप्रसार होता रहा । आचार्य उमास्वाति (ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी) भी इसी गण की उच्चैर्नागर शाखा के थे। नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणि महत्तर कोटिकगण, वाणिज्यकुल और वज्रशाखा के थे। दशवैकालिकचूणि के कर्ता अगस्त्यसिंह (ईस्वीसन्-५५०-६००) भी कोटिकगण की वज्रशाखा से सम्बद्ध थे । उनके गुरु का नाम ऋषिगुप्त था। उत्तराध्ययनचूर्णी के कर्ता (नाम-अज्ञात) के गुरु का नाम गोपालगणि महत्तर था, जो कोटिकगण, वाणिज्यकुल और वज्रशाखा के थे । ६ठी-७वीं शताब्दी में कोटिकगण से दो नये कुलों निवृत्ति और चन्द्र अस्तित्व में आये । विशेषावश्यकभाष्य आदि के रचनाकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, उपमितिभवप्रपंचाकथा के कर्ता सिद्धर्षि (९वीं शताब्दी) आदि इसी कुल के थे। चन्द्रकुल से पूर्वमध्यकाल में छोटे-बड़े अनेक गच्छ अस्तित्व में आये। पूर्वमध्यकाल और मध्यकाल का श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय का इतिहास वस्तुतः विभिन्न गच्छों का ही इतिहास है। आगे के पृष्ठों में इन्ही गच्छों के संक्षिप्त इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। संदर्भ: १. पट्टावली समुच्चय, प्रथम भाग, संपा० मुनि दर्शनविजय, वीरमगाम १९३३ ईस्वी, पृष्ठ-३, ८. प्राध्यापक मधुसूदन ढांकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर पट्टावली समुच्चय, प्रथम भाग, पृष्ठ-३. वही, प्रथम भाग, पृष्ठ-३-१०. वही, प्रथम भाग, पृष्ठ-८ ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy