________________
धर्मघोषगच्छ
५५३ के अन्त में लिखी गयी होती हैं। इनमें ग्रन्थकार की गुरु-परम्परा का उल्लेख होता है।
__ अध्ययन की सुविधा के लिये सर्वप्रथम ग्रन्थ प्रशस्तियों, तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों और अन्त में मूल ग्रन्थ के प्रतिलेखन की दाताप्रशस्तियों एवं पट्टावली से प्राप्त विवरणों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है - धर्मघोषगच्छीय आचार्यों के रचनाओं की
प्रशस्तियों का विवरण १- आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणवृत्ति - आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण खरतरगच्छीय आचार्य जिनवल्लभसूरि की प्रसिद्ध कृति है । इस पर ग्रन्थकार के शिष्य रामदेव गणि; बृहद्गच्छीय आचार्य हरिभद्रसूरि तथा धर्मघोषगच्छीय यशोभद्रसूरि द्वारा रचित वृत्तियां उपलब्ध होती है। यशोभद्रसूरि ने वृत्ति के अन्त में अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है
शीलभद्रसूरि
वादीन्द्रधर्मघोषसूरि
यशोभद्रसूरि [वृत्तिकार] २- धर्मघोषसूरिस्तुति - यह ३३ पद्यों की एक लघु रचना है, जिसके रचयिता धर्मघोषगच्छीय रविप्रभसूरि हैं। इन्होने इस रचना में अपने गुरु का नामोल्लेख तो नहीं किया है, परन्तु इनके शिष्य उदयप्रभसूरि ने अपनी रचना प्रवचनसारोद्धार की विषमपदव्याख्या की प्रशस्ति में अपने गुरु के रूप में इनका उल्लेख किया है । इस प्रशस्ति में प्राप्त गुर्वावली इस प्रकार है -
शालिभद्रसूरि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org